शौक़ सारे छिन गये, दीवानगी जाती रही
आयीं ज़िम्मेदारियाँ, तो आशिकी जाती रही
मांगते थे ये दुआ, हासिल हो हमको दौलतें
और जब आयी अमीरी, शायरी जाती रही
मय किताब-ए-पाक़ मेरी, और साक़ी है ख़ुदा
बोतलों से भर गया दिल, मयकशी जाती रही
रौशनी थी जब मुकम्मल, बंद थीं ऑंखें मेरी
खुल गयी आँखें मगर फिर रौशनी जाती रही
ये मुनाफ़ा, ये ख़सारा, ये मिला, वो खो गया
इस फेर में निनयानबे के ज़िन्दगी जाती रही
सिर्फ़ दस से पांच तक, सिमटी हमारी ज़िन्दगी
दफ़्तरी आती रही, आवारगी जाती रही
मुस्कुरा कर सितमग़र, फिर से हमको छल गया
भर गया हर ज़ख्म तो नाराज़गी जाती रही
उम्र बढ़ती जा रही है तुम बड़े होते नहीं
ऐसे तानों से हमारी, मसख़री जाती रही
हर उम्मीदें बर आईं हर खाहिशें हुई पूरी..,
लबे-तर से पुरकशीश वो तिश्नगी जाती रही.....
हर उम्मीदें बर आईं हर खाहिशें हुई पूरी..,
लबे-तर से पुरकशीश वो तिश्नगी जाती रही.....
-नामालूम ..व्हाट्सएप से
सिर्फ़ दस से पांच तक, सिमटी हमारी ज़िन्दगी
ReplyDeleteदफ़्तरी आती रही, आवारगी जाती रही.....,
बहुत सुन्दर...,
हर उम्मीदें बर आईं हर खाहिशें हुई पूरी..,
ReplyDeleteलबे-तर से पुरकशीश वो तिश्नगी जाती रही.....
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (21-05-2019) को "देश और देशभक्ति" (चर्चा अंक- 3342) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हर उम्मीदें बर आईं हर खाहिशें हुई पूरी
ReplyDeleteलबे-तर से पुरकशीश वो तिश्नगी जाती रही
बहुत खूब सर ,सादर नमस्कार
wah!
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