मेघ गंभीर नदी पर यों झुका आकुल हुआ,
कूल मानो मिल गया उसकी असिंचित प्यास को
जब लगा नभ से बरसने प्यार ही जल धार में,
गंध व्याकुल कर गई मेरी विमूर्छित श्वास को
पंख लेकर कल्पना के मैं उड़ा उस लोक तक,
जब किसी बीते हुए आषाढ़ की सुधि आ गई
यक्षिणी की देह-वल्ली तृप्त हो रस धार से,
मेघ-से अपने पिया का गूढ़ चुंबन पा गई
एक विद्युत-सी छिटकती देह के आकाश से,
स्पर्श से जन्मे पुलक के झनझनाते राग-सी
बूँद भी प्यासी स्वयं थी पी रही थी रूप को
मेंह से जो और भड़की वह सुनहली आग थी
यक्ष शापित रामगिरि का पर उपेक्षित ही रहा,
झिलमिलाती स्वप्न-सी है दूर पर अलकापुरी
पोंछते हैं अश्रु ही उसकी प्रिया के चित्र को,
सिसकियों में डूब जाता गीत उसका आखिरी
फूल धर कर देहरी पर गिन रही जो रात-दिन,
आँख में तिरती रही वह शिशिर-मथिता पद्मिनी
मलिनवसना हो गई ज्यों चंद्रिका बिंबाधरा,
शब्द चयन और भावोत्कर्ष की कसौटी पर खरी उतरती है यह रचना। अति उत्तम
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteआदरनीय सर । मंत्र मुग्ध करने वाली रचना
ReplyDeleteछायावादी कवियों का सौंदर्य और शब्द सौष्ठव लिये तिलिस्म बिखेरती अप्रतिम अभिराम रचना
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 5.7.2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3022 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद