इस वक्त की ज़ंजीर में हैं सब बंधे हुए
खुदके बिछाए जाल में खुद ही फंसे हुए।
अपनी जुवां से आज हर कोई मुक़र गया
दिल की दिलों में खांईंयां है सब धंसे हुए ।
इश्क़ की गलियों से बेदाग निकल जाना
मुमकिन नहीँ दामन मिलें बिना रंगे हुए।
न होशियार बन इस शहर ए मोहब्बत में
फंसते है दिल की क़ैद शिकारी मंझे हुए।
दिल कह रहा है आज तमाशा बना मेंरा
मुद्दत हुई है हमको खुलकर कर हंसे हुए।
कुछ कद्र कर हमारी जानिब ख़याल कर
हां हम हैं दुआ के जैसे यूं रब से मंगे हुए।
-पावनी दीक्षित जानिब
क्या बात ... इश्क़ के रास्ते रंग न लगे मुमकिन नहीं ...
ReplyDeleteकमल की ग़ज़ल है ...
वाह
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (17-01-2018) को सारे भोंपू बेंच दे; (चर्चामंच 2851) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'