Wednesday, August 31, 2016

मैं जानता हूं कि.....ज़हीर कुरेशी
















मैं जानता हूं कि
फिर उम्र भर नही लौटी
नदी पहाड़ से बिछुड़ी
तो घर नहीं लौटी।

लहर ने वादा किया था कि
तट को छुएगी ज़रूर,
है तट प्रतीक्षा में,
लहर नहीं लौटी।

खिले हजारों की संख्या में
फूल सूर्यामुखी,
फिर उस तरह की
कभी दोपहर नहीं लौटी।

इतना तो तय था कि
अस्मत लुटा के लौटेगी,
सुबह की भूली
अगर रात भर नहीं लौटी।

वो कर रही है परिस्कार
भूल अपनी का,
उधर से चल पड़ी थी,
इधर नहीं लौटी।

विचारने के अलावा भी
क्या किया जाए,
हमारी आँखो तलक नींद
अगर नहीं लौटी।

मनुष्य-लोक को दौड़ा
तो स्वर्ग-लोक गए,
वहां पहुंचने की
अब तक खबर नहीं लौटी।


-ज़हीर कुरेशी

4 comments:

  1. ज़हीर कुरेशी जी की सुन्दर रचना पढ़वाने हेतु धन्यवाद!

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