मेरी आँखों में जो थोड़ी सी नमी रह गयी है
बस यही इश्क़ की सौग़ात बची रह गयी है
वक़्त के साथ ही गुल हो गए वहशत के चराग़
एक स्याही है जो ताक़ों पे अभी रह गयी है
और कुछ देर ठहर ऐ मेरी बीनाई कि मैं
देख लूँ रूह में जो बखिया-गरी रह गयी है
आईनो तुम ही कहो क्या है मेरे होंटों पर
लोग कहते हैं कि फीकी से हंसी रह गयी है
बोझ सूरज का तो मैं कब का उतार आया मगर
धूप जो सर पे धरी थी, सो धरी रह गयी है
यूं तो इस घर के दर-ओ-बाम सभी टूट गए
हाँ मगर बीच की दीवार अभी रह गयी है
-ज़िया फ़ारूक़ी
बीनाई = नज़र
बहुत सुन्दर ।
ReplyDeleteयूं तो इस घर के दर-ओ-बाम सभी टूट गए
ReplyDeleteहाँ मगर बीच की दीवार अभी रह गयी है
,.... बहुत सुन्दर
.. .ज़िया फ़ारूक़ी जी की सुन्दर गजल प्रस्तुति हेतु धन्यवाद!
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (28-08-2016) को "माता का आराधन" (चर्चा अंक-2448) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह ! very nice .
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