जाने कहां-कहां से
भटकते-भटकते
आ जाते हैं ये भरथरी गायक
कांधे पर अघारी
हाथ में चिकारा थामे
हमारे अच्छे दिनों की तरह ही ये
देर तक नहीं टिकते
पर जितनी देर भी रुकते हैं
झांक जाते हैं
आत्मा की गहराइयों तक
घुमन्तु-फिरन्तु ये
जब टेरते हैं चिकारे पर
रानी पिंगला का दुःख
सब काम छोड़
दीवारों की ओट से
चिपक जाती हैं स्त्रियां
यह वही समय होता है
जब आप सुन सकते हैं
समूची सृष्टि का विलाप
-केशव तिवारी
....तरंग से,15 मार्च
Behad gahan .....
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (03-07-2015) को "जब बारिश आए तो..." (चर्चा अंक- 2025) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
बहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुंदर--ये हमेम हमारी ्पीडाओं से रूबरू करा जाते हैम
ReplyDeleteपीडा ना हो तो प्रसन्नता बे-अर्थ है.