सामर्थ्य नहीं अब शब्दों में
कहना कुछ भी है व्यर्थ तुम्हें।
अधरों के स्वर हो गए कंपित,
अब रुँध चले हैं कंठ मेरे।
नयनों के अश्रु भी तुमसे
विनती कर के अब हार गए
मेरे संतापों के ताप से भी
ना रूद्ध ह्रदय के द्वार खुले
जो प्रश्न मेरे थे गए तुम तक
ना लौट के आया प्रत्युत्तर
दस्तक देते कईं शब्द मेरे
बैरंग चले आए मुझ तक
अब छोड़ दिया है आस सभी
भूला तेरा अपमान सभी
पशुता सा जो आघात किया
बेधा मन छल प्रतिघात किया
लो मुक्त किया हर बंधन से
अपने रूदन और क्रदन से
जी लो तुम मुक्त-मगन होकर
रच लो संसार नव-सृजन कर
@ रश्मि वर्मा
उच्च कोटि की भावनात्मक रचना । हार्दिक शुभकामनाएँ
ReplyDeleteपाषाण पर सर क्यों पटकना ???
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (06-010-2017) को
ReplyDelete"भक्तों के अधिकार में" (चर्चा अंक 2749)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'