Tuesday, October 17, 2017

तू मेरी न सुन मगर कहूँगा......निजाम रामपुरी

कहने से न मनअ' कर कहूँगा 
तू मेरी न सुन मगर कहूँगा 

तुम आप ही आए यूँ ही सच है 
नाले को न बे-असर कहूँगा 

गर कुछ भी सुनेंगे वो शब-ए-वस्ल 
क्या क्या न में ता-सहर कहूँगा 

कहते हैं जो चाहते हैं दुश्मन 
मैं और तुम्हें फ़ित्ना-गर कहूँगा 

कहते तो ये हो कि तू है अच्छा 
मानोगे बुरा अगर कहूँगा 

यूँ देख के मुझ को मुस्कुराना 
फिर तुम को मैं बे-ख़बर कहूँगा 

इक बात लिखी है क्या ही मैं ने 
तुझ से तो न नामा-बर कहूँगा 

कब तुम तो कहोगे मुझ से पूछो 
मैं बाइस-ए-दर्द-ए-सर कहूँगा 

तुझ से ही छुपाऊँगा ग़म अपना 
तुझ से ही कहूँगा गर कहूँगा 

मालूम है मुझ को जो कहोगे 
मैं तुम से भी पेश-तर कहूँगा 

हैरत से कुछ उन से कह सकूँगा 
भूलूँगा का इधर उधर कहूँगा 

कुछ दर्द-ए-जिगर का होगा बाइस 
क्यूँ तुझ से मैं चारा-गर कहूँगा 

अब हाल-ए-'निज़ाम' कुछ न पूछो 
ग़म होगा तुम्हें भी गर कहूँगा  


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