ये नहीं कि दिल की ख़लिश पिघल गई।
रोने से तबियत ज़रूर थोड़ी संभल गई।।
वही मैं, वही तुम, वही है दोस्ती हमारी,
फ़ासले से कैफ़ियत ज़रूर थोड़ी बदल गई।
पहले से जानते थे कि ना आओगे मगर,
बहाने से तबियत ज़रूर थोड़ी बहल गई।
उन्हें झूठ कहने का कोई इरादा तो ना था,
जुबां से हक़ीक़त ज़रूर थोड़ी फिसल गई।
दीदार-ए-यार की आरज़ू में बेख़ुद ना थे ,
उम्मीद से हसरत ज़रूर थोड़ी मचल गई।
खुशमिजाज़ रहे दौर-ए-आज़माइश में भी,
मुस्कराने से मुसीबत ज़रूर थोड़ी टल गई।
'दक्ष' को अब भी है अपने दोस्तों पे ऐतबार,
ज़माने से शराफ़त ज़रूर थोड़ी निकल गई।
-विकास शर्मा "दक्ष"
बहुत खूब
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (09-10-2017) को
ReplyDelete"जी.एस.टी. के भ्रष्टाचारी अवरोध" (चर्चा अंक 2751)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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करवाचौथ की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteThanks .... Am Honoured !
ReplyDeleteVikas Sharma "Daksh"
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