आतुरता का
व्याकुलता की ओर
यह प्रवाह
आह!!
गुमान ही ना था
कोई अनुमान ही ना था।
लज़्ज़त के गगन से
टप्प टप्प बूँद गिरती रही
हृदय के रजत कटोरे में
चुपके से, लबालब
चांदनी भरती रही।
जब तंद्रा टूटी
तो देखा
विदीर्ण हो गई
किन्तु-परंतु की रेखा
जब होश आया तो देखा
पीयूष से भर गया घट
लहक उठा आलम
ख़यालों में था मन
अधखुले नयनों के
बंद ही न होते पट।
क्या छुआ
जो यूँ हुआ
ये वज़ूद तो
तने की तरह तना था
बेपरवाह लापरवाह
स्वयं में मुग्ध।
घट का पीयूष पिया
तो समझा
अब तक क्या जिया।
खुरदुरेपन में फूटे
नवीन अंकुर
निकल आईं शाखायें
अब मैं हरा भरा हूँ
हाँ एक जगह ही खड़ा हूँ,
लेकिन तुम थोड़ा और
उतंग करो अपना उफान
मैं छू लूंगा तुम्हारे तरंगित
अस्तित्व को,
झुक कर-झुकाकर
अपनी शाखायें,
हो जाऊँगा तरबतर।
उम्मीदें बढ गईं हैं
कि अब जी लूंगा
देर सवेर ही सही
मैं अमृत पी लूंगा।
- अमित जैन 'मौलिक'
वाह।
ReplyDeleteमन को तरंगित करती सुंदर संकल्पना। शरद पूर्णिमा का अनुभव अलौकिक होता है। मनभावन भावप्रवण रचना। बधाई मालिक जी।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (07-10-2017) को "ब्लॉग के धुरन्धर" (चर्चा अंक 2750) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपका अतुल्य आभार आदरणीया मेरी रचना को मान देने के लिये। सभी गुणीजनों का आशीर्वचनों के लिये धन्यवाद
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteलाजवाब प्रस्तुति....