तेरे न हो सके तो किसी के न हो सके
ये कारोबारे-शौक़ मुक़र्रर न हो सका
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यूँ तो मरने के लिए ज़हर सभी पीते हैं
ज़िन्दगी तेरे लिए ज़हर पिया है मैंने
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क्या जाने दिल में कब से है अपने बसा हुआ
ऐसा नगर कि जिसमें कोई रास्ता न जाए
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हमने खुद अपने आप ज़माने की सैर की
हमने क़ुबूल की न किसी रहनुमा की शर्त
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कहेगा दिल तो मैं पत्थर के पाँव चूमूंगा
ज़माना लाख करे आके संगसार मुझे
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ज़ंज़ीर आंसुओं की कहाँ टूट कर गिरी
वो इन्तहाए-ग़म का सुकूँ कौन ले गया
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उम्र भर मसरूफ हैं मरने की तैय्यारी में लोग
एक दिन के जश्न का होता है कितना एहतमाम
-जनाब खलीलुर्रहमान आज़मी
वाह।
ReplyDeleteलाजवाब प्रस्तुति।
ReplyDeleteअनुपम प्रस्तुति .आपको सपरिवार दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएँ यशोदा जी .
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (19-10-2017) को
ReplyDelete"मधुर वाणी बनाएँ हम" (चर्चा अंक 2762)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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दीपावली से जुड़े पंच पर्वों की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'