वो बात किया करते हैं
अक्सर ही स्त्री स्वतंत्रता की
बुद्धिजीवियों की जमात में
उनका दैनिक उठना बैठना
चाय सिगरेट हुआ करता है
साहित्यिक राजनीतिक मंचों से
स्त्री स्वतंत्रता के पक्ष में
धाराप्रवाह कविता पाठ किया करते हैं
अखबारी स्तंभों में भी
यदा कदा नजर आ ही जाते हैं
नवलेखन, साहित्य अकादमी,
साहित्य गौरव, साहित्य शिरोमणि, कविताश्री
और पता नहीं क्या-क्या इकट्ठा कर रखा है
उसने अपने अंतहीन परिचय में
सड़क से गुजरते हुए
एकदिन अचानक देखा मैंने
उनके घर के आगे
भीड़! शोर शराबा!
पुलिस! पत्रकार!
कवि के हाथों में लाठी!
मुँह से गिरती धाराप्रवाह गालियाँ!
थोड़े ही फासले पर फटे वस्त्रों में खड़ी
रोती-कपसती एक सुंदर युवती
और ठीक उसकी बगल में
अपाहिज सा लड़खड़ाता एक युवक
इसी बीच
भीड़ की कानाफूसी ने मुझे बताया
पिछवाड़े की मंदिर
उनकी बेटी ने दूसरी जाति में
विवाह कर लिया है
मैं अवाक् सोचता रहा
कि आखिर किनके भरोसे
बचा रहेगा हमारा समाज
क्या सच में कभी
स्त्रियों को मिल पायेगी
उनके हिस्से की स्वतंत्रता
-परितोष कुमार ‘पीयूष’
सुन्दर!
ReplyDeleteसुन्दर।
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteवाह
ReplyDeletevery nice....satik rachna
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (16-10-2017) को
ReplyDelete"नन्हें दीप जलायें हम" (चर्चा अंक 2759)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बड़ी-बड़ी बातें करने वाले स्वंय अपनी ही बातों पर अमल नहीं करते,जातिवाद मिटाओ लिखने वाले स्वयं ही जातिवाद फैलाते नजर आते है......
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...