उत्तरायण से बंसत तक
खिली चांदी सी धूप से
मीठी धीमी ताप में एक
उमंग पकने लगती है।।
सर्द गर्म से अहसास,
कहीं जिन्दा रखते हैं
सपने बुनते आदम को
विलुप्त होते प्राणी को ।।
और मुझमें भी अन्दर
धूप सी हरी उम्मीद
मेरा ”औरा“ बनती है
प्रसून जैसी महकती है।।
बुद्ध को सोचने की
एक हद तक फिर
मेरे लिये मुझमें
बोध के रास्ते तलाशती ।।
कहती है जा जा!
खुद के साथ रह
एक दो दिन और
जी अनगिनत से पल ।।
वो साथी बन जाते
मुझमें सासें भरते हैं
मेरी सोच में ही सही
मेरे अपने से होते हैं।।
किन्तु जो बोध सहज
मुक्ति को सरल कर दें
सच कहें ऐसे यथार्थ
आसान नही होते है ।।
-नीलम नवीन ”नील“
सुन्दर।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...
ReplyDeleteकिन्तु जो बोध सहज
मुक्ति को सरल कर दें
सच कहें ऐसे यथार्थ
आसान नही होते है
सार्थक प्रस्तुति
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