अन्तः करण कि आवाज थी ...कहाँ ?
कभी ...आत्मा कि अनसुलझी पुकार ||
नित नए... अवसाद समेटे हुए ....
या कभी....विवादित से हुए वो छार ||
डायरी में रहे क्यूँ शेष ये कोरे पन्ने |
सिकुड़े से कुछ गुंजले पीले से कोर ||
थी... क्या व्यथा ...ऐसी ...जो ..
उभर ना सके थे शब्दों के अभिसार ||
मिल न सके ...क्यूँ ....स्मृतियों के ...
बेचैन से लिखित ...........कोई छोर ||
आज जो रुक गए आकर ..आवक ...
कोरे पन्नो पे पलटते अँगुलियों के पोर ||
उकसा रहा मन विकल कोरे इन पन्नों से |
कोरे रह जाने के अनसुलझे से तार ||
आंदोलित करते रहे पुरानी डायरी के ...
अनलिखे...... ये .....शब्द सार ||
या आवाक है हटात ...व्यर्थ रहा ..
जीवन यूँ ही रहा ....कोरा सा ... सार ||
-अलका गुप्ता
सुन्दर।
ReplyDeleteमिल न सके ...क्यूँ ....स्मृतियों के ...
ReplyDeleteबेचैन से लिखित ...........कोई छोर |
सार्थक रचना।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज मंगलवार (14-03-2017) को
ReplyDelete"मचा है चारों ओर धमाल" (चर्चा अंक-2605)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'