निषाद-पुत्र
एकलव्य का
दाहिना अंगूठा आज
तक नहीं उग पाया।
गुरु द्रोण
जो उच्चवर्ण के
एकाधिकार संरक्षण हेतु
मांगा था आपने।
जब
सह न पाए थे
प्रखर एकलव्य का
समानता प्राप्त करता कौशल।
सदियों उपरांत
आज भी
जंगल के किसी
कोने में पड़ा
एकलव्य का
अंगूठा फड़फड़ा
रहा है छिपकली
की पूँछ की तरह;
दुबारा उगने के लिए।
गुरू द्रोण
क्या अब पुनः आओगे
एकलव्य से
गुरू दक्षिणा लेने?
जब उसके हाथों में
बाणों की जगह
कलम की शक्ति
भूस देगी प्रत्येक
भौंकने वाले
कुत्ते का मुंह;
अब क्या मांगोगें
अनामिका, माध्यिका-
या तर्जनी?
इस बार इतने
विश्वास के साथ
मत आना गुरू द्रोण--
सदियों के उत्पीड़न ने
एकलव्य को
चतुर बना दिया है---
अंगूठा तो उगा
नहीं लेकिन--
आपकी पक्षपाती
दृष्टि देखकर-
उंगुलियां काटने से पहले
एकलव्य सोचेगा ज़रूर...!
-शोध छात्रा हेमलता यादव
सटीक।
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 16-03-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2606 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
हेमलता, बिलकुल सही सवाल किया है तुमने। आज का एकलव्य गुरु द्रोण का पक्षपाती दृष्टिकोन समझता है। अत: आज वो अंगुठा काटने से पहले सोचेगा जरुर...
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ReplyDeleteसटीक और सार्थक प्रश्न ...
ReplyDeleteसार्थक रचना
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