मुक्त करो पंख मेरे पिजरे को खोल दो
मेरे सपनो से जरा पहरा हटाओ तो ...
आसमाँ को छू के मैं तो तारे तोड़ लाऊंगी
एक बार प्यार से हौसला बढाओ तो ...
बेटों से नहीं है कम बेटी किसी बात में
सुख हो या दुःख सदा रहती हैं साथ में
वंश सिर्फ बेटे ही चलाएंगे न सोचना
भला इंदिरा थी कहाँ कम किसी बात में
बेटियों को बेटियां ही मानो नहीं देवियाँ
पत्थर की मूरत बनाओ नहीं बेटियां
इनसान हैं इनसान बन जीने दो ...
हंसने दो रोने दो गाने मुस्कुराने दो
सुन्दर।
ReplyDeleteवाह !!सुंदर । बेटियाँ तो घर की रौनक होती हैं।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (30-03-2017) को
ReplyDelete"स्वागत नवसम्वत्सर" (चर्चा अंक-2611)
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत खूब लिखा ही ... बेटियों को देवी बना कर महान बनाने की बजाये उनको इंसान मजबूत इंसान बनायें ... किसी के कम नहीं आंकें ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...
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