हर बार मेरे हिस्से
तुम्हारी दूरियाँ आईं
नजदीकियों ने हँसकर जब भी
विदा किया
एक कोना उदासी का लिपट कर
तुम्हारे काँधे से सिसका पल भर को
फिर एक थपकी हौसले की
मेरी पीठ पर तुम्हारी हथेलियों ने
रख दी चलते-चलते !
.....
मेरे कदम ठिठक गए पल भर
कितने कीमती लम्हे थे
उस थपकी में
जिनका भार मेरी पीठ पर
तुम्हारी हथेली ने रखा था
भूलकर जिंदगी कितना कुछ
हर बार मुस्कराती रही
उम्मीद को हँसने की वजह
नम आँखों से भी बताती रही
गले लगती जो कभी
सुबककर रात तो
उसे भोर में चिडि़यों का चहचहाना
सूरज की किरणें दिखलाती रही !!
....
कूकती कोयल ... अपनी मधुरता से
आकर्षित करती सबको
भूल जाते सब उसके काले रंग को
मीठा राग है जिंदगी भी
बस तुम्हें हर बार इसे
भूलकर मुश्किलों को
गुनगुनाना होगा पलकों पे
इक नया ख्वाब बुनकर
उसे लम्हा-लम्हा सजाना होगा !!!
-सीमा 'सदा' सिघल
सुन्दर रचना ।
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