Thursday, September 13, 2012

गधे ज़ाफ़रान में कूद रहे है.........सिकन्दर खान

चारगाह में घोडों के लिये घास नहीं,
लेकिन गधे ज़ाफ़रान में कूद रहे है

 कैसे कैसे दोस्त हैं कैसे कैसे धोखे
चबा रहे हैं अंगूर बता अमरूद रहे हैं

ना जाने खो गया है किस अज़ब अन्धेरे में
आंख बन्द करके तलाश अपना वज़ूद रहे हैं

उधार लिये थे चंद लम्हे पिछ्ले जनम में
अभी तक चुका उनका सूद रहे हैं

मकान बेच कर खरीदी थी तोप कोमल ने
ज़मीन बेच के खरीद उसका बारूद रहे हैं


--सिकन्दर खान


25 comments:

  1. नए मुहावरे की रचना है जिसके कथ्य की परिणति इन शब्दों में बहुत अच्छी लगी-
    मकान बेच कर खरीदी थी तोप कोमल ने
    ज़मीन बेच के खरीद उसका बारूद रहे हैं

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    1. सिकन्दर है तो रचना भी सिकन्दर ही होगी न
      आभार

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  2. लोगों के जबसे बने, गधे सधे से बाप ।

    मौज कर रहे हैं गधे, घोड़े रस्ता नाप ।

    घोड़े रस्ता नाप, कोयला ही है सोना ।

    सारे घोड़े बेंच, पड़ा सोना मत रोना ।

    रविकर मिटा वजूद, सूद का झंझट भोगो ।

    बेचो खेत जमीर, खरीदो तोपें लोगों ।

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    1. भाई
      आपने तो नई कविता ही लिख दी
      धन्यवाद

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  3. शुक्रिया रविकर भाई

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  4. वाह ... बहुत ही बढिया प्रस्‍तुति।

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    1. शुकराना नज़र करती हूँ दीदी

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  5. आपकी बात में सार है.
    यह दिल को छू गयी है.

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    1. फैय्याज भाई
      सलाम
      शुक्रिया

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    2. माफी
      आपका नाम गलत लिख दी

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  6. उत्कृष्ट प्रस्तुति शुक्रवार के चर्चा मंच पर ।।

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  7. उधार लिये थे चंद लम्हे पिछ्ले जनम में
    अभी तक चुका उनका सूद रहे हैं.....
    ....................
    बहुत दूर तक प्रहार करती सोच
    सिकंदर साहब को बधाई

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    1. शुभ प्रभात राहुल
      आभार

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  8. Replies
    1. शुभ प्रभात दीदी
      आभार

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  9. बहुत बढ़िया प्रस्तुति शेयर करने के लिए आभार यशोदा जी

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    1. शुक्रिया आभार धन्यवाद

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  10. अशोक चक्रधर जी की एक कविता 'गधे खा रहे हैं च्वनप्रश देखो' याद आ गयी :)


    सादर

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    1. धन्यवाद भाई
      ये वही रचना है हिन्दी फोरम वाली

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    1. धन्यवाद महेन्द्र भाई

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  12. आपकी बात में दम है
    आजकल तो गधे ही जाफरान में कूद रहे हैं ।

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