कबतक पहने रहूँ ये हँसी का मुखौटा,
कभी-कभी अकेले में रोना अच्छा लगता है...
कबतक सहूँ ये चिलमिलाती धूप,
अचानक हीं बिन बादल बारिश का होना अच्छा लगता है...
कभी-कभी अकेले में रोना अच्छा लगता है...
कबतक सहूँ ये चिलमिलाती धूप,
अचानक हीं बिन बादल बारिश का होना अच्छा लगता है...
कब-तक करवटें बदलता रहूँ इस काँटों भरे बिस्तर पे,
कभी-कभी खुली आँख से गहरी नींद में सोना अच्छा लगता है...
कबतक सोचता रहूँ बीते हुए कल को,
आने वाले कल का खुश्नुमा ख्वाब अच्छा लगता है...
कबतक पूछूँ सवाल औरों से,
अब तो खुद से हीं सवाल और उसका जवाब अच्छा लगता है...
कबतक करूँ सुबह का इंतजार इस अँधेरी रात में,
भोर में घास पे पड़ा वो आफताब अच्छा लगता है...
कबतक कहूँ कि किस्मत हीं रूठी है मेरी,
अब तो खुद रूठकर खुद को मनाना अच्छा लगता है...
कबतक झूठ कहूँ खुद से हीं,
लेकिन खुद से ये कड़वा सच छुपाना अच्छा लगता है...
कबतक याद करूँ बचपन के वो दिन, वो छोटा-सा बच्चा,
लेकिन क्या करूँ, उसकी मासूम किलकारियाँ सुनना अछ्छा लगता है...
कबतक रहूँ यूँ बिखरा-बिखरा,
लेकिन क्या करूँ, अब खुद टुकड़ों में बिखर, उन्हें चुनना अच्छा लगता है...
कबतक फँसा रहूँ इन उलझनों में,
लेकिन क्या करूँ, शब्दों का ये जाल बुनना अच्छा लगता है...
कबतक डरूं एक पत्थर से,
लेकिन क्या करूँ, शीशे के उस महल में रहना अच्छा लगता है...
कबतक मरुँ बिना मतलब के,
लेकिन क्या करूँ, शायद वो मीठा दर्द सहना अच्छा लगता है...
कबतक रहूँ खामोश,
लब्ज भी मिलते नहीं,
लेकिन क्या करूँ,
दिल की बात यूँ ही आपसे कहना अच्छा लगता है...
- विशाल शाहदेव
कभी-कभी खुली आँख से गहरी नींद में सोना अच्छा लगता है...
कबतक सोचता रहूँ बीते हुए कल को,
आने वाले कल का खुश्नुमा ख्वाब अच्छा लगता है...
कबतक पूछूँ सवाल औरों से,
अब तो खुद से हीं सवाल और उसका जवाब अच्छा लगता है...
कबतक करूँ सुबह का इंतजार इस अँधेरी रात में,
भोर में घास पे पड़ा वो आफताब अच्छा लगता है...
कबतक कहूँ कि किस्मत हीं रूठी है मेरी,
अब तो खुद रूठकर खुद को मनाना अच्छा लगता है...
कबतक झूठ कहूँ खुद से हीं,
लेकिन खुद से ये कड़वा सच छुपाना अच्छा लगता है...
कबतक याद करूँ बचपन के वो दिन, वो छोटा-सा बच्चा,
लेकिन क्या करूँ, उसकी मासूम किलकारियाँ सुनना अछ्छा लगता है...
कबतक रहूँ यूँ बिखरा-बिखरा,
लेकिन क्या करूँ, अब खुद टुकड़ों में बिखर, उन्हें चुनना अच्छा लगता है...
कबतक फँसा रहूँ इन उलझनों में,
लेकिन क्या करूँ, शब्दों का ये जाल बुनना अच्छा लगता है...
कबतक डरूं एक पत्थर से,
लेकिन क्या करूँ, शीशे के उस महल में रहना अच्छा लगता है...
कबतक मरुँ बिना मतलब के,
कबतक रहूँ खामोश,
लब्ज भी मिलते नहीं,
लेकिन क्या करूँ,
दिल की बात यूँ ही आपसे कहना अच्छा लगता है...
- विशाल शाहदेव
सुन्दर रचना ...
ReplyDeleteबधाई विशाल जी को...
शुक्रिया यशोदा :-)
सस्नेह
अनु
शुभ प्रभात दीदी
Deleteआभार
कबतक......
ReplyDeletebahut sundar rachna vishaalji.....
शुभ प्रभात राहुल
Deleteआभार
कब तक मुखौटे पहने रहे कोई ..... सुंदर संकलन
ReplyDeleteदीदी प्रणाम
ReplyDeleteआभारी हूँ
लेकिन क्या करूँ,ऐसी रचना पढ़ना,अनुभव करना अच्छा लगता है ....|
ReplyDeleteलाजवाब...|
आभार मन्टू भाई
Deleteभोर में घास पे पड़ा वो आफताब अच्छा लगता है... वाह जी...हमें भी आपको पढ़ना अच्छा लगता है...
ReplyDeleteशुभ प्रभात
Deleteआभार रश्मि बहन