मन करता है
कहीं दूर चली जाऊँ,
कभी नहीं आऊँ,
और फिर तुम
मुझे अपने आसपास ना पाकर,
परेशान हो जाओ,
मैं तुम्हें खूब याद आऊँ,
इतनी याद आऊँ कि
ढुलक पड़े तुम्हारी पत्थर जैसी
बेजान आँखों से बेतरह आँसू,
तुम्हारे कठोर दिल से
निकल पड़े ठंडी आहें,
और तुम दुआएँ माँगों
बार-बार
मेरे हक में कि
ऐ खुदा लौटा दे
मेरी उस सच्ची चाहने वाली को
पर मैं तब भी
नहीं मिलूँ तुम्हें,
फिर तुम्हें
अपनी हर बेवफाई
याद आए
एक-एक कर,
जिसे मैंने जिया है
हर रोज मरकर।
कहीं दूर चली जाऊँ,
कभी नहीं आऊँ,
और फिर तुम
मुझे अपने आसपास ना पाकर,
परेशान हो जाओ,
मैं तुम्हें खूब याद आऊँ,
इतनी याद आऊँ कि
ढुलक पड़े तुम्हारी पत्थर जैसी
बेजान आँखों से बेतरह आँसू,
तुम्हारे कठोर दिल से
निकल पड़े ठंडी आहें,
और तुम दुआएँ माँगों
बार-बार
मेरे हक में कि
ऐ खुदा लौटा दे
मेरी उस सच्ची चाहने वाली को
पर मैं तब भी
नहीं मिलूँ तुम्हें,
फिर तुम्हें
अपनी हर बेवफाई
याद आए
एक-एक कर,
जिसे मैंने जिया है
हर रोज मरकर।
-स्मृति जोशी 'फाल्गुनी'
और तुम दुआएँ माँगों
ReplyDeleteबार-बार.....
मेरा तो मन कर रहा है कि
इस सहज, सरल व नैसर्गिक रचना को
एक हजार बार पढूं.....
शुभ प्रभात
ReplyDeleteधन्यवाद राहुल
शुक्रिया मदन भाई
ReplyDeleteआपके सभी लिंक मुझे मालूम है
और ताजा-तरीन जानकारी मुझे मेरे डेश बोर्ड पर मिलते रहती है
फाल्गुनी जी आपका ब्लॉग देखा बढ़िया लगा बस इसी तरह मन की अभिव्यक्ति को व्यक्त करते रहें और अगर फुर्सत मिले तो http://pankajkrsah.blogspot.com पर पधारने का कष्ट करें आपका स्वागत है...
ReplyDeleteशुक्रिया पंकज भाई
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