कुछ तो पाया है मिरे दिल ने तेरे जाने में।
रात भर रोए थे, कुछ मोतियों को पाने में।।
फिर न कहना कि मुझे दोस्तों का मोल नहीं,
उम्र गुज़री है, तेरी दोस्ती भुलाने में।।
तुमने पूछा ही नहीं मुझसे मेरा हाल-ए-जिगर,
मैं बताने तो गया था, तिरे बुलाने में।।
कैसे कह दूं कि तेरा साथ मुझको ख़ास नहीं,
ख़ुद को भूले हुए हैं हम, क़रीब लाने में।।
झुकती उठती है नज़र इक नज़र चुराने को,
जा के आती है, हमें साँस फिर ज़माने में।।
झूठ सब बातें हुई, बेख़ौफ़, मगर चूँ न हुई,
कितना कोहराम मचा है, ये सच बताने में।।
-विनीता तिवारी
बहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (15-09-2018) को "हिंदी पर अभिमान कीजिए" (चर्चा अंक-3095) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हिन्दी दिवस की शुभकामनाओं के साथ...।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
झुकती उठती है नज़र इक नज़र चुराने को,
ReplyDeleteजा के आती है, हमें साँस फिर ज़माने में।।
वाह बहुत खूब लिखा हैं