कभी कभी अच्छा लगता है
उस नदी को देखना
जो बही जा रही हो किनारे तोड़
उद्दाम
रौद्र
प्रचंड
बेलौस
बगैर किसी आशंका
बगैर किसी धारणा के!!
निर्बाध निर्भीक
परम्पराएँ ढहाती
हर व्यवस्था भंग करती
अपनी धारायें स्वयं बनाती!!
कभी कभी अच्छा लगता है
उसका यूँ जता देना
कि मेरी सहृदयता का अनुचित लाभ न उठाओ
कि मेरा सम्मान करो
कि शक्तिस्तोत्र मैं हूँ
और तुम नगण्य!!
कि प्रार्थना मैं हूँ
और तुम प्रार्थी !!
कि अंतिम निर्णायक मैं हूँ
और तुम मात्र दर्शक!!
और कभी कभी बहुत अच्छा लगता है
ऐसी किसी नदी में अपना बिम्ब तलाशना!!
~निधि~
सुन्दर।
ReplyDeleteवाह!!
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’बाबा आम्टे को याद करते हुए - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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