धत्त!
तुम भी न
बस कमाल हो!
न सोचते
न विचारते
सीधे-सीधे कह देते
जो भी मन में आए
चाहे प्रेम
या ग़ुस्सा
और नाराज़ भी तो बिना बात ही होते हो
जबकि जानते हो
मनाना भी तुम्हें ही पड़ेगा
और ये भी कि
हमारी ज़िन्दगी का दायरा
बस तुम तक
और तुम्हारा
बस मुझ तक
फिर भी अटपटा लगता है
जब सबके सामने
तुम कुछ भी कह देते हो
तुम भी न
बस कमाल हो!
-डॉ. जेन्नी शबनम
jenny.shabnam@gmail.com
सुन्दर।
ReplyDeleteकविता में आलोचना से ज़्यादा प्यार छुपा है, अपनापन छुपा हुआ है. कमाल की कविता है. इसे पढ़ने के बाद सोचना पड़ रहा है कि दाम्पत्य-जीवन में हुई नोंक-झोंक में हम ऐसे ही रिश्तों की मिठास क्यूँ नहीं खोज लेते. बहुत खूब डॉक्टर जेन्नी शबनम !
ReplyDeleteप्यारी कविता
ReplyDeleteप्रेम की निश्छलता और समर्पण को उकेरती मनभावन रचना.
ReplyDeletesundar rachna
ReplyDeleteसुन्दर कविता
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