भड़कने की पहले दुआ दी गई थी।
मुझे फिर हवा पर हवा दी गई थी।
मैं अपने ही भीतर छुपा रह गया हूं,
ये जीने की कैसी अदा दी गई थी।
बिछु्ड़ना लिखा था मुकद्दर में जब तो,
पलट कर मुझे क्यों सदा दी गई थी।
अँधेरों से जब मैं उजालों की जानिब
बढा़, शम्मा तब ही बुझा दी गई थी।
मुझे तोड़ कर फिर से जोडा़ गया था,
मेरी हैसियत यूं बता दी गई थी।
सफर काटकर जब मैं लौटा तो पाया,
मेरी शख्सियत ही भुला दी गई थी।
गुनहगार अब भी बचे फिर रहे हैं,
तो सोचो किसे फिर सज़ा दी गयी थी।
-कृष्ण सुकुमार
वाह ।
ReplyDeleteकृष्ण सुकुमार जी की सुन्दर रचना प्रस्तुति हेतु धन्यवाद
ReplyDeleteआपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं!
shandaar
ReplyDeleteबहुत सुन्दर शब्द रचना.
ReplyDeleteग़ज़ल के हर छंद ने दिल को छूआ।
आपको जन्मदिन की शुभकामनाएं ..............
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मुझे तोड़ कर फिर से जोडा़ गया था,
ReplyDeleteमेरी हैसियत यूं बता दी गई थी।
आपने तो मेरी ही हकीकत बयाँ कर दी।