मुखौटे एक-एक कर उतरने लगे हैं,
ओ दुनिया तुम्हें हम समझने लगे हैं।
आँखों में अदावत और हाथों का मिलना,
रवायत नई, अब समझने लगे हैं।
बेतकल्लुफ़ी से मिलते थे सब,
अब पहले मिज़ाज परखने लगे हैं।
नई फिज़ा है निज़ाम की अब,
सच बोलने वाले सब खटकने लगे हैं।
भटकते थे पहले अंधेरे में लोग,
अब चकाचौंध में राह भटकने लगे हैं।
वाह।
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 23-02-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2597 में दिया जाएगा |
ReplyDeleteधन्यवाद
सच बोलने वाले तो हमेशा से खटकते हैं ... लाजवाब ग़ज़ल ...
ReplyDeleteधन्यवाद सभी का...
ReplyDeleteसंपादक महोदय, प्रेषित करने से पहले सूचित कर देना उचित रहता आपका...