कब हमने सोचा था कि ये पैर डगमगायेंगे,
बेटे हमारे लिये फिर लाठी ले के आयेंगे।
खाना बनाने से भी हम इतने थक जायेंगे
सीढी बिना रेलिंग की कैसे हम उतर पायेंगे।
लेकिन ये हुआ है तो अब मान भी हम जायेंगे
जो जो सहारा लेना है लेकर उसे निभायेंगे।
मन माफिक खाना पीना भी भूल जायेंगे,
सरे शाम ही अब खाने से निपट जायेंगे।
हलका फुलका और दाल से निभायेंगे,
एक ही काफी है अब दो कहाँ खा पायेंगे।
घूमने जाना तो फिर कोई साथ ले के जायेंगे
अकेले से तो जानें की हिम्मत क्या बटोर पायेंगे।
वाह ! बड़ा ही सटीक वर्णन किया है आशा जी जीवन की इस अवस्था का ! बधाई स्वीकार करें !
ReplyDeleteवाह।
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