चल पड़े हम उसी सफ़र के लिये
वो ही मंज़िल उसी डगर के लिये
जिसके साये में मिट गई थी थकन
मैं हूँ बेताब उसी शजर के लिये
चंद रिश्ते दिलों के थोड़ी ख़ुशी
और क्या चाहिये बसर के लिये
पक के गिरने की राह देखी सदा
पास पत्थर तो था समर के लिये
हर जगह रोशनी हुई है मगर
शब अँधेरी है खँडहर के लिये।
-ऋतु कौशिक
ritukaushiktanu@gmail.com
बहुत सुन्दर।
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