चला इक दिन जो घर से पान खा कर
तो थूका रेल की खिड़की से आकर
मगर जोशे हवा से चंद छींटे
पड़े रुखसार पे इक नाजनीन के
हुई आपे से वो फ़ौरन ही बाहर
लगी कहने अबे ओ खुश्क बन्दर
ज़बान को रख तू मुंह के दाएरे में
हमेशा ही रहेगा फायदे में
बहाने पान के मत छेड़ ऐसे
यही अच्छा है मुझ से दूर रह ले
तेरी सूरत तो है शोराफा के जैसी
तबियत है मगर मक्कार वहशी
कहा मैं ने कहानी कुछ भी बुन लें
मगर मोहतरमा मेरी बात सुन लें
खुदा के वास्ते कुछ खौफ खाएं
ज़रा सी बात इतनी न बढ़ाएं
नहीं अच्छा है इतना पछताना
मुझे बस एक मौका देदो जाना
ज़बान को अपनी खुद से काट लूँगा
जहां थूका है उस को चाट लूंगा
शाय़र : अज्ञात
रुखसार : गाल , शोराफा : शरीफों
बढ़िया।
ReplyDelete