मेरे घर की खिड़की से
अब कोई पेड़ नहीं दिखता
न जाने क्यूं
सुरक्षित अभ्यारण्य में भी
अब कोई शेर नहीं दिखता
कहानियां मार्मिक यूं तो
बिखरी है चारो ओर
न जाने क्यूं
लोगों की आँखों में
अब पानी नहीं दिखता
स्नेह और वात्सल्य यूं तो
लुटाया जा रहा है बहुत
न जाने क्यूं
सर जी अंकल जी पर,
अब गुड़िया का
भरोसा नहीं दिखता
सफेद खादी पहने दिखाई देते हैं
नेता तो बहुत
न जाने क्यूं
अब कोई गांधी-नेहरू,सुभाष
नहीं दिखता
सफर हवाई जहाजों के
कर रहे हैं,
माँ-बाप बहुत
न जाने क्यूं
राह में अब कोई
श्रवण कुमार नहीं दिखता
-दिनेश पाठक
(रसरंग से)
जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि!! जगत को जैसा हम चाहते हैं वैसा बनाना हो तो वैसा ही देखना भी होगा
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत रचना
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना
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