कितने सहमे डरे हुए
अहं से हम भरे हुए
इच्छाओं के पत्ते हरे हुए
फिर भी हैं ठहरे हुए
क्योंकि अहं से हैं भरे हुए
आत्म-प्रशंसा की दीवारें
दिखता नहीं "मैं" के पार कुछ भी
मैं के बंघनों में जकड़े हुए
खुद तक सहमें,सिकुड़े हुए
बस अब कुछ और दिखाई न दे
सिर्फ अपनी आवाज सुनाई दे
टर्राते हुए मेंढकों के कुंए गहरे हुए
घमंड में चूर अंधे-बहरे हुए
सिमट गए सारे दायरे
लेकिन अपना गुरूर हाय रे
कैसे छुपाएं कितने सहमें डरे हुए
शायद अंदर से एकदम मरे हुए
हर तरफ ऊंचाइयां ही ऊंचाइया
कामयाबी की लम्बी-लम्बी
परछाइयां
परछाइयों में गुम कई चेहरे हुए
मगर हसरतों पर न
सख़्त पहरे हुए
अहं से हम भरे हुए
इच्छाओं के पत्ते हरे हुए
फिर भी हैं ठहरे हुए
क्योंकि अहं से हैं भरे हुए
Sunday, October 16, 2022
कितने सहमे डरे हुए ..प्रकाश गुप्ता
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सुंदर प्रस्तुति
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