शर्म थी वो तुम तो शर्म कर ही सकते थे
दामन में उसके इज्जतें भर भी सकते थे।
माना के बेबसी में वो बदन बेचती रही
समझौता हालातों से तुम कर भी सकते थे।
लाज शर्म की उसने तुम्हें पतवार सौंप दी
रहमो करम की उसपे नजर कर भी सकते थे।
रिश्ता बनाके उसका तुम हाथ थाम लेते
कोठा कहते हो उसे घर कर भी सकते थे।
उसका गुनाह न अपना गिरेबां भी झांकिए
इंसान बनके तुम खुदा से डर भी सकते थे।
तुम मसीहा थे जानिब था हर फैसला तेरा
आंचल उढ़ाके तुम बदन को ढक भी सकते थे।
-पावनी जानिब सीतापुर
वाह
ReplyDeleteसुन्दर भाव पूर्ण रचना..
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 09 फरवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसशक्त एवं प्रभावी प्रस्तुति ।
ReplyDeleteप्रभावशाली निर्भीक लेखन।
ReplyDeleteतुम मसीहा थे जानिब था हर फैसला तेरा
ReplyDeleteआंचल उढ़ाके तुम बदन को ढक भी सकते थे।
–काश
रिश्ता बनाके उसका तुम हाथ थाम लेते
ReplyDeleteकोठा कहते हो उसे घर कर भी सकते थे।
वाह👌👌👌👌👌
बहुत सुंदर
ReplyDeleteसचमुच बहुत ही प्रभावित हूँ।
ReplyDeleteसचमुच बहुत ही प्रभावित हूँ। बहुत खूबसूरत।
ReplyDeletebahut hi badhiya
ReplyDeleteThis is an amazing post I loved this post.
ReplyDeleteShayari
Eye Status
बहुत सुन्दर 👍!
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