Thursday, November 5, 2020

विषधर ....संगीता स्वरूप

शहरी हवा 
कुछ इस तरह चली है 
कि इन्सां सारे 
सांप हो गए हैं ,

साँपों की भी होती हैं 
अलग अलग किस्में 
पर इंसान तो सब 
एक किस्म के हो गए हैं .

साँप देख लोंग 
संभल तो जाते हैं 
पर इंसानी साँप 
कभी दिखता भी नहीं है ..

जब चढ़ता है ज़हर 
और होता है असर 
तब चलता है पता कि
डस  लिया है किसी 
मानवी विषधर ने 

जितना विष है 
इंसान के मन में 
उसका शतांश  भी नहीं 
किसी भुजंग में 

स्वार्थ के वशीभूत हो 
ये सभ्य कहाने वाले 
पल रहे हैं विषधर 
शहर शहर में .
-संगीता स्वरूप




2 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 05 नवंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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