देख गिरी दीवार, धमाका मेरा है
इस प्रदेश का सीएम, काका मेरा है
जुबां हिलाने से पहले यह तय कर ले
मेरी है सरकार, इलाका मेरा है
प्यार नहीं फिर भी यह दावा काहे का ?
लुटने को तैयार, छलावा काहे का ?
मुझको पानी-पानी करके खुश हो ले
दिल मे रखते हो यह लावा काहे का ?
आज जुदा हूँ तो पछतावा काहे का ?
देते हो हर रोज बुलावा काहे का ?
घर में भुजी भांग नहीं तेरे 'कौशल'
भोज जायकेदार, दिखावा काहे का ?
बस यूँही रास्ता नापते-नापते
आ गया मैं इधर ही, जहाँ आप थे
'अपनी औकात की मत नुमाईश करो'
मेरे दिल ने कहा हाँफते-हाँफते
- कौशल शुक्ला
शानदार👌
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 12.11.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 12 नवंबर 2020 को साझा की गयी है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteव्यंग्य और कटाक्ष से भरपूर...बढ़िया ग़ज़ल
ReplyDeleteपढ़ कर आनंद आ गया....
वाह !बेहतरीन सृजन।
ReplyDeleteहा हा हा ... उत्तम!
ReplyDeleteप्रभावशाली रचना।
ReplyDelete:) बहुत सशक्त रचना।
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteलाजवाब।