जंगल की कंदराओं से निकल तुम ।
सभ्यताओं के सोपान इतने चढ़े तुम ।
क्यूँ हो अभी भी दानव इतने तुम !
अत्याचार ये..इतने वीभत्स वार क्यूँ ?
मानवता आज भी इतनी निढाल क्यूँ ?
बलात्कार हिंसा यह लूटमार क्यूँ ?
साथ थी विकास में संस्कृति के वह ।
उसका ही इतना तिरस्कार क्यूँ ?
प्रकट न हुआ था प्रेम-तत्व तब ।
स्व-स्वार्थ निहित था आदिमानव तब ।
एक माँ ने ही सिखाया होगा प्रेम तब ।
उमड़ पड़ा होगा छातियों से दूध जब ।
संभाल कर चिपकाया होगा तुझे तब ।
माँस पिंड ही था ..एक तू इंसान तब ।
न जानती थी फर्क..नर-मादा का तब |
आज मानव जानके भी अनजान क्यूँ ?
जंगल की कंदराओं से निकल..तुम |
सभ्यताओं के सोपान इतने चढ़े तुम ।
क्यूँ हो अभी भी ..दानव इतने तुम !
अत्याचार ये..इतने वीभत्स वार क्यूँ ?
-अलका गुप्ता 'भारती'
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 17 फरवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद यशोदा जी 🙏 😊
ReplyDeleteFantastic Content! more:iwebking
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