Tuesday, November 7, 2017

कभी कभी बेहद डर लगता है.............सज्जाद ज़हीर


कभी कभी बेहद डर लगता है
कि दोस्ती के सब रुपहले रिश्ते
प्यार के सारे सुनहरे बंधन
सूखी टहनियों की तरह
चटख़ कर टूट न जाएँ
आँखें खुलें, बंद हों देखें
लेकिन बातें करना छोड़ दें
हाथ काम करें
उँगलियाँ दुनिया भर के क़ज़िए लिक्खें
मगर फूल जैसे बच्चों के
डगमगाते छोटे छोटे पैरों को
सहारा देना भूल जाएँ
और सुहानी शबनमी रातों में
जब रौशनियाँ गुल हो जाएँ
तारे मोतिया चमेली की तरह महकें
प्रीत की रीत
निभाई न जाए
दिलों में कठोरता घर कर ले
मन के चंचल सोते सूख जाएँ
यही मौत है!
उस दूसरी से
बहुत ज़ियादा बुरी
जिस पर सब आँसू बहाते हैं
अर्थी उठती है
चिता सुलगती है
क़ब्रों पर फूल चढ़ाए जाते हैं
चराग़ जलते हैं
लेकिन ये, ये तो
तन्हाई के भयानक मक़बरे हैं
दाइमी क़ैद है
जिस के गोल गुम्बद से
अपनी चीख़ों की भी
बाज़-गश्त नहीं आती
कभी कभी बेहद डर लगता है 

3 comments:

  1. प्रीत की रीत
    निभाई न जाए
    दिलों में कठोरता घर कर ले
    मन के चंचल सोते सूख जाएँ
    यही मौत है!
    ...........सुन्दर!

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (08-11-2017) को चढ़े बदन पर जब मदन, बुद्धि भ्रष्ट हो जाय ; चर्चामंच 2782 पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'


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