Wednesday, September 30, 2020

भीगना है बहुत जरूरी तब



बाद   मुद्दत    करार   आ   जाये ।
गर   तू  आये   बहार  आ   जाये ।।

भीगना   है   बहुत   जरूरी   तब ।
जब समुंदर  में  ज्वार  आ  जाये ।।

ऐ क़मर है सभी की ये ख़्वाहिश ।
उनके हिस्से  का प्यार आ  जाये ।।

इश्क़  के   मुन्तज़िर  हैं   दीवाने ।
बस  तेरा   इश्तिहार  आ  जाये ।।

बात दिल की तभी बयां  करना ।
आखों  में  जब ख़ुमार आ जाये ।।

तेरी हरक़त से एक दिन न कहीं ।
दोस्ती   में    दरार   आ   जाये ।।

पार   करना  तभी  मुनासिब  है ।
जब  नदी  में  उतार  आ  जाये ।।

मेरे  क़ातिल  तुम्हारे  ख़ंजर   में ।
इक  नई  तेज   धार  आ  जाये ।।

लीजिये  बस  दवा  सनम  से ही ।
इश्क़  का  जब  बुखार आ जाये ।।

-नवीन मणि त्रिपाठी

अकेले खड़े हो ..सुजाता प्रिय

अकेले खड़े हो मुझे तुम बुला लो।

मायुस क्यों हो ,जरा मुस्कुरा लो।


रात है काली और अँधेरा घना है,

तम दूर होगा तू दीपक जला लो।


भरोसा न तोड़ो, मंजिल  मिलेगी,

जो मन में बुने हो सपने सजा लो।


देखो तो कितनी है रंगीन दुनियाँ,

इन रंगों को आ मन में बसा लो।


रूठा न करना कभी भी किसी से,

रूठे हुए को जरा तुम मना लो।


पराये को अपना बनाना  कला है,

अपनों को अपने दिल में बसालो।


बुराई किसी की तुम,मन में लाओ,

अच्छाईयों को भी अपना बना लो।


प्यार सिखाता जो,वह गीत गाओ,

झंकार करता , गजल गुनगुनाओ।

-सुजाता प्रिय 

Monday, September 28, 2020

पर खबरदार!!! अनर्थ को ललकारने से बचना ...प्रगति मिश्रा 'सधु'

अनर्थ को ललकारने से बचना

हूँ सहनशील पर इतना नहीं कि,

राह के पाषाण की तरह

कोई ठोकर मार दे...और

ढलमलाते एक कोने से

दूसरे कोने में जा गिरे...।


है धैर्य बेहद मूल्यों का

पर इतना नहीं कि;

समक्षी अपनी नैतिकता गटक जाए

और ताकते मुंह रह जाएं

चिर -चिरंतर तक।


है प्रवृति खुशमिजाज-सहृदय  सी पर,

इतना नहीं कि;

धृष्टों की धृष्टता पर , हंसी जाए।

मित्रवत व्यवहार किया जाए ।

दोमुहें सांपो के भीड़ में खड़ी,

लिए कटोरा दूध का

पर खबरदार!!!


अनर्थ को ललकारने से बचना।

हूँ नम्र पर इतना नहीं कि

नरम समझकर

खीरे- ककरी की तरह चबा जाओ

..........................................

पैर के नीचे से ज़मीन खीचनें की 
औकात हम रखते हैं

-प्रगति मिश्रा 'सधु' 

Saturday, September 26, 2020

स्याही की बूंद ....पावनी जानिब

मैं स्याही की बूंद हूं जिसने जैसा चाहा लिखा मुझे
मैं क्या हूं कोई ना जाने अपने मन सा गढा़ मुझे।


भटक रही हूं अक्षर बनकर महफिल से वीराने में
कोई मन की बात न समझा जैसा चाहा पढ़ा मुझे।


ना समझे वो प्यार की कीमत बोली खूब लगाई है
जैसे हो जागीर किसीकी दांव पे दिलके धरा मुझे।


बह जाए जज़्बात ना कैसे आज यू कोरे पन्नों पर
अरमानों की स्याही देकर कतरा कतरा भरा मुझे।


पढ़ना है तो कुछ ऐसा पढ़ रूह को राहत आ जाए
मैं तेरी ख्वाब ए ग़ज़ल हूं मत कर  खुदसे जुदा मुझे।


तुम चाहो तो शब्द सुरों सी शहनाई में गूंज उठूं 
जब दिल तेरा याद करे जानिब देना सदा मुझे।

-पावनी जानिब 

सीतापुर



Friday, September 25, 2020

किवाड़...रचनाकार की तलाश है

क्या आपको पता है ?
कि किवाड़ की जो जोड़ी होती है,
उसका एक पल्ला स्त्री और,
 दूसरा पल्ला पुरुष होता है।

ये घर की चौखट से जुड़े - जड़े रहते हैं।
हर आगत के स्वागत में खड़े रहते हैं।।
खुद को ये घर का सदस्य मानते हैं।
भीतर बाहर के हर रहस्य जानते हैं।।

एक रात उनके बीच था संवाद।
चोरों को लाख - लाख धन्यवाद।।
वर्ना घर के लोग हमारी ,
एक भी चलने नहीं देते।
हम रात को आपस में मिल तो जाते हैं,
हमें ये मिलने भी नहीं देते।।

घर की चौखट से साथ हम जुड़े हैं,
अगर जुड़े जड़े नहीं होते।
तो किसी दिन तेज आंधी -तूफान आता, 
तो तुम कहीं पड़ी होतीं,
हम कहीं और पड़े होते।।

चौखट से जो भी एकबार उखड़ा है।
वो वापस कभी भी नहीं जुड़ा है।।

इस घर में यह जो झरोखे ,
और खिड़कियाँ हैं।
यह सब हमारे लड़के,
 और लड़कियाँ हैं।।
तब ही तो,
इन्हें बिल्कुल खुला छोड़ देते हैं।
पूरे घर में जीवन रचा बसा रहे,
इसलिये ये आती जाती हवा को,
खेल ही खेल में ,
घर की तरफ मोड़ देते हैं।।

हम घर की सच्चाई छिपाते हैं।
घर की शोभा को बढ़ाते हैं।।
रहे भले कुछ भी खास नहीं , 
पर उससे ज्यादा बतलाते हैं।
इसीलिये घर में जब भी,
 कोई शुभ काम होता है।
सब से पहले हमीं को,
 रँगवाते पुतवाते हैं।।

पहले नहीं थी,
डोर बेल बजाने की प्रवृति।
हमने जीवित रखा था जीवन मूल्य, 
संस्कार और अपनी संस्कृति।।

बड़े बाबू जी जब भी आते थे,
कुछ अलग सी साँकल बजाते थे।
आ गये हैं बाबूजी,
सब के सब घर के जान जाते थे ।।
बहुयें अपने हाथ का,
 हर काम छोड़ देती थी।
उनके आने की आहट पा,
आदर में घूँघट ओढ़ लेती थी।।

अब तो कॉलोनी के किसी भी घर में,
किवाड़ रहे ही नहीं दो पल्ले के।
घर नहीं अब फ्लैट हैं ,
गेट हैं इक पल्ले के।।
खुलते हैं सिर्फ एक झटके से।
पूरा घर दिखता बेखटके से।।

दो पल्ले के किवाड़ में,
एक पल्ले की आड़ में ,
घर की बेटी या नव वधु,
किसी भी आगन्तुक को ,
जो वो पूछता बता देती थीं।
अपना चेहरा व शरीर छिपा लेती थीं।।

अब तो धड़ल्ले से खुलता है ,
एक पल्ले का किवाड़।
न कोई पर्दा न कोई आड़।।
गंदी नजर ,बुरी नीयत, बुरे संस्कार,
सब एक साथ भीतर आते हैं ।
फिर कभी बाहर नहीं जाते हैं।।

कितना बड़ा आ गया है बदलाव?
अच्छे भाव का अभाव।
 स्पष्ट दिखता है कुप्रभाव।।

सब हुआ चुपचाप,
बिन किसी हल्ले गुल्ले के।
बदल दिये किवाड़,
हर घर के मुहल्ले के।।

अब घरों में दो पल्ले के ,
किवाड़ कोई नहीं लगवाता।
एक पल्ली ही अब,
हर घर की शोभा है बढ़ाता।।

अपनों में नहीं रहा वो अपनापन।
एकाकी सोच हर एक की है , 
एकाकी मन है व स्वार्थी जन।।
अपने आप में हर कोई ,
रहना चाहता है मस्त,
 बिल्कुल ही इकलल्ला।
इसलिये ही हर घर के किवाड़ में,
दिखता है सिर्फ़ एक ही पल्ला!!

यह रचना मुझे व्हाट्सएपप पर मिली
ऐसा मैं महसूस करती हूँ किसी के ब्लॉग की रचना है
जिसने भी लिखी है ये लाज़वाब रचना
उन्हें साधुवाद..
यदि वे चाहें तो उनका नाम लिख सकती हूँ


Thursday, September 24, 2020

मुझे जलाना ऐसे धुआं न निकले...पावनी जानिब

कुछ इस तरह मैं करूं मोहब्बत
सम्हल के भी तू कभी न सम्हले

बस इतना हो जब उठे जनाजा
हमारा और दम तुम्हारा निकले।


मैं टूट जाऊं तो गम नहीं है
सितम ये तेरा सितम नहीं है।

बदल गए कुछ बदल भी जाओ
हमारे दिल की वफ़ा न बदले।


इक बार सो के कभी जगे ना
सुना है एक ऐसी नींद भी है 

मैं चैन से तब सो सकूं जब
तुम्हारे लब से दुआ न निकले ।


फिर हम मिलें न मिल पाएं
मेरी खता की सजा सुना दो

भर जाए दिल जब किसी से तो
कैसे मुमकिन खता न निकले।


कहोगे क्या तुम अपने दिल से
भुलाओगे किस तरह से हमको

के दूर जाओगे कैसे मुझसे कहीं
दिल तेरा मेंरा पता न निकले।


मैं एक ग़ज़ल किताब ए ,जानिब,
पढ़ो य कागज स तुम जाला दो

रुसवाईयां हो जाएं न तेरी मुझे
जलाना ऐसे धुआं न निकले।

-पावनी जानिब सीतापुर

Tuesday, September 22, 2020

इंसानियत का कोई मजहब नहीं होता ....अज्ञात

इंसानियत का कोई मजहब नहीं होता ....अज्ञात 

मस्जिद पे गिरता है
मंदिर पे भी बरसता है..
ए बादल बता तेरा मजहब कौन सा है........।।

इमाम की तू प्यास बुझाए
पुजारी की भी तृष्णा मिटाए..
ए पानी बता तेरा मजहब कौन सा है.... ।।

मज़ारों की शान बढाता है
मूर्तियों को भी सजाता है..
ए फूल बता तेरा मजहब कौन सा है........।।

सारे जहाँ को रोशन करता है
सृष्टि को उजाला देता है..
ए सूरज बता तेरा मजहब कौन सा है.........।।

मुस्लिम तूझ पे कब्र बनाता है
हिंदू आखिर तूझ में ही विलीन होता है..
ए मिट्टी बता तेरा मजहब कौन सा है......।।

ऐ दोस्त मजहब से दूर हटकर,
इंसान बनो
क्योंकि इंसानियत का कोई मजहब नहीं होता... ।।

-रचनाकार 

अज्ञात