Wednesday, September 24, 2014

तुमने चख लिया हर रंग का लहू.......अजन्ता देव














तुम्हारी जिव्हा
ठांव-कुठांव टपकाती है लार
इसे काबू में रखना तुम्हारे वश में कहां
तुमने चख लिया हर रंग का लहू


परन्तु एक बार आओ
मेरी राम रसोई में
अग्नि केवल तुम्हारे जठर में
नहीं, मेरे चूल्हे में भी है
ये पृथ्वी स्वयं हांडी बनकर
खदबदा रही है


केवल द्रौपदियों को ही
मिलती है यह हांडी
पांच पतियों के
परम सखा से

- अजन्ता देव


..... नायिका से... 

Tuesday, September 23, 2014

आज याद आए कौन...........जावेद अख़्तर


दर्द अपनाता है पराए कौन
कौन सुनता है सुनाए कौन


 कौन दोहराए वो पुरानी बात
ग़म अभी सोया है जगाए कौन

वो जो अपने हैं क्या वो अपने हैं
कौन दुख झेले आज़माए कौन

अब सुकूं है तो भूलने में है
लेकिन उस शख़्स को भुलाए कौन

आज फिर दिल है कुछ उदास-उदास
देखिए आज आज याद आए कौन

-जावेद अख़्तर
... मधुरिमा से..

Monday, September 22, 2014

ये इक चराग कई आंधियों पे भारी है...........जाहिद हसन वसीम (वसीम बरेलवी)

 ये है तो सब के लिये हो ये ज़िद है हमारी
इस एक बात पे दुनिया से जंग ज़ारी है

उड़ान वालों उड़ानों पे वक्त भारी है
परों की अब नहीं हौसलों की बारी है

मैं कतरा होके भी तूफ़ां से जंग लेता हूं
मुझे बचाना समुंदर की जिम्मेदारी है

इसा बीच ज़लते हैं सहरा-ए-आरजू में च़राग
ये तिश्नगी तो मुझे जिंदगी से प्यारी है

कोई बताए ये उस के ग़ुरूर-ए-बेजा को
वो जंग लड़ी ही नहीं जो हारी है

हर एक सांस पे पहरा है बे-य़कीनी का
ये ज़िंदगी तो नहीं मौत की सवारी है

दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत
ये इक चराग कई आंधियों पे भारी है

-जाहिद हसन वसीम (वसीम बरेलवी)
............
सहरा-ए-आरजू : इच्छाओं का मरुस्थल, 
तिश्नगी : ख़्वाहिश, गुरूर-ए-बेजा : घमंड

जाहिद हसन वसीम (वसीन बरेलवी)
जन्म : 18 फरवरी, 1940, बरेली, रुहेलखण्ड,उत्तरप्रदेश.

Sunday, September 21, 2014

ख़्वाब में कल डाँट कर गए...........आलोक श्रीवास्तव



अब तो ख़ुशी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा
आसूदगी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा

सब लोग जी रहे हैं मशीनों के दौर में
अब आदमी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा

आई थी बाढ़ गाँव में, क्या-क्या न ले गई
अब तो किसी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा

घर के बुज़ुर्ग लोगों की आँखें ही बुझ गईं
अब रौशनी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा

आए थे मीर ख़्वाब में कल डाँट कर गए
‘क्या शायरी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा?’

- आलोक श्रीवास्तव

प्राप्ति स्रोतः काव्यांचल

Saturday, September 20, 2014

पेड़............. सुधीर कुमार सोनी





 











मैंने
कागज पर लकीरें खिचीं
डाल बनाई
पत्ते बनाए
अब कागज पर
चित्र लिखित सा पेड़ खड़ा है

पेड़ ने कहा
यह मैं हूं
मुझ पर काले अक्षरों की दुनिया रचकर
किसे बदलना चाहते हो

मैंने
रंगों से कपड़ों में
कुछ लकीरें खींचीं
डाल बनाई
पत्ते बनाए
अब
कपड़े पर छपा पेड़ है
पेड़ ने कहा
यह मैं हूं
मुझे नंगा कर
किसे ढंकना चाहते हो

यह जो तुम हो
पेड़ ने कहा
यह भी मैं हूं
सांसों पर रोक लगाकर
किसे जीवित रखना चाहते हो। 


-सुधीर कुमार सोनी

प्राप्ति स्रोतः काव्य संसार, वेब दुनिया

Friday, September 19, 2014

सपने भी टूटे तो क्या...............शाश्वत




  स्याही सूखी, कलम भी टूटी,
सपने भी टूटे तो क्या,
अभी शेष समंदर मन में,
आंसू भी सूखे तो क्या।

पत्ता-पत्ता डाली-डाली,
बरगद भी सूखा तो क्या,
जड़े शेष जमीं में बाकी,
गुलशन भी सूखा तो क्या,

स्याही सूखी, कलम भी टूटी,
सपने भी टूटे तो क्या,

अपने रूठे, सपने झूठे,
जग भी छूट गया तो क्या,
जन्मों का ये संग है अपना,
छूट गया इक जिस्म तो क्या

स्याही सूखी, कलम भी टूटी,
सपने भी टूटे तो क्या।

-शाश्वत

Thursday, September 18, 2014

नाम से जिसके मेरी पहचान होगी..........आलोक श्रीवास्तव




  ले गया दिल में दबाकर राज़ कोई,
पानियों पर लिख गया आवाज़ कोई.

बांधकर मेरे परों में मुश्किलों को,
हौसलों को दे गया परवाज़ कोई.

नाम से जिसके मेरी पहचान होगी,
मुझमें उस जैसा भी हो अंदाज़ कोई.

जिसका तारा था वो आंखें सो गई हैं,
अब कहां करता है मुझपे नाज़ कोई.

 रोज़ उसको ख़ुद के अंदर खोजना है,
रोज़ आना दिल से इक आवाज़ कोई.

-आलोक श्रीवास्तव 
प्राप्ति स्रोत : वेब दुनिया