Thursday, February 28, 2013

कुछ तो कहें..............विजय निकोर




तुम्हारी याद के मन्द-स्वर
धीरे से बिंध गए मुझमें
कहीं सपने में खो गए
और मैं किंकर्तव्यविमूढ़
अपने विस्मरण से खीजता
बटोरता रहा रात को
और उसमें खो गए
सपने के टुकड़ों को

कोई गूढ़ समस्या का समाधान करते
विचारमग्न रात अंधेरे में डूबी
कुछ और रहस्यमय हो गई

यूं तो कितनी रातें कटी थीं
तुमको सोचते-सोचते
पर इस रात की अन्यमनस्कता
कुछ और ही थी

मुझे विस्मरण में अनमना देख
रात भी संबद्ध हो गई
मेरे ख्यालों के बगूलों से
और अंधेरे में निखर आया तुम्हारा
धूमिल अमूर्त-चित्र

मैं भी तल्लीन रहा कलाकार-सा
भावनाओं के रंगों से रंजित
इस सौम्य आकृति को संवारता रहा
तुमको संवारता रहा

अचानक मुझे लगा तुम्हारा हाथ
बड़ी देर तक मेरे हाथ में था
और फिर पौ फटे तक जगा
मैं देखता ही रहा
तुम्हारे अधखुले होठों को
कि इतने वर्षों की नीरवता के उपरांत
इस नि:शब्द रात की नि:शब्दता में 
शायद वह मुझसे कुछ कहें
शायद वह मुझसे
कुछ तो कहें।

- विजय निकोर

Wednesday, February 27, 2013

माँ....तुम अब क्या हो......... डॉ. मधुसूदन चौबे

सुन, तू मेरी माँ नहीं, काम वाली बाई है..
शहर में मिलती नहीं, गाँव से आई है ...

कोई भी पूछे, तो सबको यही बताना..
यहाँ मत रुक, जा अन्दर चली जा ना ....

घंटी बजे तो तुरंत बहार आना है ..,
'जी' कह कर अदब से सर झुकाना है ...


मुझसे मिलने आये विजिटर्स के लिए ...,
'शालीनता' से चाय - पानी लाना है...

बहू 'मैडम' और में तेरे लिए 'सर' हूँ.
अब मैं 'पप्पू' नहीं, बड़ा अफसर हूँ..

माँ हंसी, फिर बोली मुझे मंजूर है ..,
तेरी उपलब्धि पर मुझे गुरुर है. ..


बचपन में गोबर बीनने वाला पप्पू. ...,
आज जिले का माई-बाप और हुजूर है. ..

नौकरी तो मैं वर्षों से कर रही थी ..,
गंदगी साफ़ कर, तेरी फीस भर रही थी..


दिल्ली कोचिंग का शुल्क देने के लिए ....,
में ख़ुशी-ख़ुशी 'पाप' कर रही थी ...

सुनो, बाई, जल्दी से नाश्ता लगाओ ....,
तभी 'मैडम' की कर्कश आवाज आई थी ....


वह जो धरती पर ईश्वर का विकल्प थी .....,
अपनी नियति पर उसकी आँख छलक आई थी...


- डॉ. मधुसूदन चौबे
१२९, ओल्ड हाऊसिंग बोर्ड कालोनी, बडवानी [म. प्र.]
मो.  7489012967
https://www.facebook.com/madhusudan.choubey

Tuesday, February 26, 2013

एक मीठी याद अपनी...........जनकराज पारीक



तुम्हारे नाम..
लिख रहा हूँ
एक और खत
तुम्हारे नाम

धूप के आखर
सियाही पुष्प के
मकरंद की.
एक मीठी याद अपनी
प्रीत के
अनुबन्ध की.
लेखनी पर
स्मृतियों के
लग रहे विराम

कह नहीं पाते
हृदय का बात
शब्द असमर्थ
खुल रहे हैं
दूरियों के 
कसमसाते अर्थ.

समझना तुम
जो कहें ये
मूक सर्वनाम.

--जनकराज पारीक

Monday, February 25, 2013

लौटकर कब आते हैं???????.........प्रीति सुराना




सपने हैं घरौंदे,
जो उजड़ जाते हैं,....
मौसम हैं परिन्दे,
जो उड़ जाते हैं,....



क्यूं बुलाते हो,
खड़े होकर बहते हुए पानी में उसे,....



बहता हुआ पानी
गुज़रे हुए दिन
और गए हुए लोग
लौटकर कब आते हैं???????.........



---प्रीति समकित सुराना
https://www.facebook.com/pritisamkit 
http://priti-deshlahra.blogspot.in/

Saturday, February 23, 2013

किसी को भूल सकता है कैसे?.............विजय निकोर



अस्तित्व की शाखाओं पर बैठे
अनगिन घाव
जो वास्तव में भरे नहीं
समय को बहकाते रहे
पपड़ी के पीछे थे हरे
आए-गए रिसते रहे

कोई बात, कोई गीत, कोई मीत
या केवल नाम किसी का
उन्हें छील देता है, या
यूं ही मनाने चला आता है-

मैं तो कभी रूठा नहीं था
जीने से, बस
आस जीने की टूटी थी
चेहरे पर ठहरी उदासी गहरी
हर क्षण मातम हो
गुजरे पल का जैसे
सांसें भी आईं रुकी-रुकी
छांटती भीतरी कमरों में बातें
जो रीत गईं, पर बीतती नहीं
जाती सांसों में दबी-दबी
रुंध गई मुझको रंध्र-रंध्र में ऐसे
सोए घाव, पपड़ी के पीछे जागे
कुछ रो दिए, कभी रिस दिए
वही जो सं‍वलित था भीतर
और था समझने में कठिन
जाती सांसों को शनै:-शनै:
था घोट रहा

ऐसी अपरिहार्य ऐंठन में
अपरिमित घाव समय के
कभी भरते भी कैसे?
लाख चाह कर भी कोई
स्वयं को समेटकर, बहकाकर
किसी को भूल सकता है कैसे?

- विजय निकोर

जीवन है पुलकित, ये ऋतुराज बसंत है.........अंजली तिवारी


उल्लास है उमंग है, मन में तरंग है,
जीवन है पुलकित, ये ऋतुराज बसंत है...

Hindi poetry

मंद है पवन, न ही शीत-न ही गर्म है,
अंबर है स्वच्छ और चहचहाते विहंग हैं
खिल उठा किसान, देख जौ-फसल की बालियां,
सरसों-फूल-पत्तों से, सजे धरती और डालियां,
पुष्पित कुसुम, नव पल्लव, नई सुंगध है,
जीवन है पुलकित, ये ऋतुराज बसंत है...
चारों ओर पीत रंग, आम-वृक्ष बौर खिले,
तीर्थ में मेला भरे, वृन्दावन में बिहारी सजें,
सरस्वती-पूजन लाए, जीवन में सुमति-गति,
ये रिवाज हैं जीवंत, क्योंकि आस्था अनंत है,
सूर्य जाए कुंभ में, मौसम सुखमय अत्यंत है,
जीवन है पुलकित, ये ऋतुराज बसंत है...
पराग से मधु रसपान करें, मधुमक्खी, भवरें, तितलियां,
मौसम-सौंदर्य से गिरें, दिल पर सबके बिजलियां,
सृष्टि के कण-कण में, बजे प्यार का मृदंग है,
सजनी से मिले मीत, रति-काम उत्सव आरंभ है,


कोयल की तान भी, छेड़े राग बसंत है
जीवन है पुलकित, ये ऋतुराज बसंत है...
मन में उमड़े प्यार, मधुमास तले बेल बढ़े,
इस मौसम-सुगंध में, ऊर्जा बढ़े प्रेम बढ़े,
नई आस नया गीत, प्राण-वायु का संचार करे,
ये है श्रृंगार ऋतु, यौवन और बहार लिए,
दुल्हन-सा रुप धरे, जिसमें साजन-सी उमंग है,
ह्रदय में उड़ान, जैसे गगन में पतंग है,
उल्लास है उमंग है, मन में तरंग है,
जीवन है पुलकित, ये ऋतुराज बसंत है...

----अंजली तिवारी -------

Wednesday, February 20, 2013

महक उठी थी केसर..........................फाल्गुनी

खिले थे गुलाबी, नीले,
हरे और जामुनी फूल
हर उस जगह
जहाँ छुआ था तुमने मुझे,
महक उठी थी केसर
जहाँ चूमा था तुमने मुझे,
बही थी मेरे भीतर नशीली बयार
जब मुस्कुराए थे तुम,

और भीगी थी मेरे मन की तमन्ना
जब उठकर चल दिए थे तुम,
मैं यादों के भँवर में उड़ रही हूँ
अकेली, किसी पीपल पत्ते की तरह,

तुम आ रहे हो ना
थामने आज ख्वाबों में,
मेरे दिल का उदास कोना
सोना चाहता है, और

मन कहीं खोना चाहता है
तुम्हारे लिए, तुम्हारे बिना।
-स्मृति आदित्य "फाल्गुनी"