यहाँ हर व्यक्ति है डर की कहानी
बड़ी उलझी है अन्तर की कहानी
शिलालेखों को पढ़ना सीख पहले
तभी समझेगा पत्थर की कहनी
रसोई में झगड़ते ही हैं बर्तन
यही है यार, हर घर की कहानी
कहाँ कब हाथ लग जाए अचानक
अनिश्चित ही है अवसर की कहानी
नदी को अन्तत: बनना पड़ा है
किसी बूढे़ समन्दर की कहानी
-ज़हीर कुरैशी
वाह वाह कुरैशी जी
ReplyDeleteकब कहाँ हाथ लग जाये अवसर
अनिश्चित ही है अवसर की कहानी .....
आफरीन आफरीन .....सत्य कहा
अवसर एक मेहमान की तरह होते है कब किसका दरवाजा खटखटा दें मालूम नहीं विलम्ब को अवहेलना मानते है और चले गये तो पुनः नहीं आते !
सटीक और मन भावन लेखन नमन 🙏
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (11-04-2018) को ) "सिंह माँद में छिप गये" (चर्चा अंक-2937) पर होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
आपने बहुत खूब लिखा है, जहीर कुरैशी जी...शिलालेखों को पढ़ना सीख पहले
ReplyDeleteतभी समझेगा पत्थर की कहनी...
वाह
ReplyDeleteवाह.. बहुत खूब
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ReplyDeleteनदी को अन्तत: बनना पड़ा है
किसी बूढे़ समन्दर की कहानी-------------
क्या बात है !!!!!!!!!!! अद्भुत !!!!!आदरणीय जहीर जी | शुभकामनाये मेरी |