नज़र न मिला सके उनसे उस निगाह के बाद
वही है हाल हमारा जो हो गुनाह के बाद
मैं कैसे और किस सिम्त मोड़ता खुद को
किसी का चाह न थी दिल में तेरी चाह के बाद
ज़मीर कांप जाता है आप कुछ भी कहें
वो हो गुनाह से पहले, के हो गुनाह के बाद
कटी हुई थी तनाबे तमाम रिश्तों की
छुपाता सर मैं कहां तुझ से रस्म-ओ-राह के बाद
गवाह चाह रहे थे वो बेगुनाही का
ज़ुबां से कह न सका कुछ ख़ुदा-गवाह के बाद
खतूत कर दिए वापस मेरी नींदें
इन्हें भी छोड़ दो इक रहम के निगाह के बाद
-कृष्ण बिहारी नूर
बढ़िया ।
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