मेरे इश्क़ का मसला ये तमाम हुआ,
मैं हुआ, बदनाम सरेआम हुआ।
मुद्दतों बाद कोई नज़र आया,
मैं हुआ, गुल-ए-गुलफाम हुआ।
उन्होंने बाज़ार में मेरी क़ीमत जो पूछी,
मैं हुआ, भरे बाज़ार शर्मशार हुआ।
तोड़ा दिल उन्होंने काँच से कुरेद के,
बेवफ़ा मैं ही साबित उस बार हुआ।
रस्म-ए-उल्फ़त को निभाया मैंने,
गलीज़ ज़ुम्बिशों का शिकार हर बार हुआ।
-अच्युत शुक्ल
गलीज़ - असभ्य, गन्दा, ज़ुम्बिश - हरकत, गति
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (29-01-2017) को "लोग लावारिस हो रहे हैं" (चर्चा अंक-2586) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत खूब
ReplyDeleteसुन्दर।
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