लगाया दांव पर दिल को जुआरी है,
मगर हारा कि दिल क्या, जान हारी है।
पयामे-यार आना था नहीं आया,
कहें किससे कि कितनी बेकरारी है।
झुकाकर सर खड़े होना जरूरी सा,
जहां सरकार की निकली सवारी है।
कभी इक पल नजर थी जाम पर डाली,
अभी तक, मुद्दतें गुजरीं, खुमारी है।
तलाशें क्यों कहीं अब दूसरा दुश्मन,
हमारी जब हमीं से जंग जारी है।
कही इक नासमझ ने आज ये सबसे,
समझ में आ गई अब बात सारी है।
मुखातिब है जमाने की हंसी से यूं,
कभी सहमी नहीं ईमानदारी है।
मेरी मौजूदगी में चुप खड़े थे सब,
चला आया कि फिर चर्चा हमारी है।
लगे कैसे नहीं तीखी जमाने को,
अजी ये' सिद्ध' की नगमा निगारी है।
- ठाकुर दास' सिद्ध'
वाह सुन्दर ।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (03-01-2017) को "नए साल से दो बातें" (चर्चा अंक-2575) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
नववर्ष 2017 की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
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