हर बयानी खलिशे-खार की तरह बयां होती
खल्वत मे सफे-मिज़गा के मोअजे -शरोदगी है खोलती
हनोज़ न मिल सका जवाब उन आँखों को
मेरी रुकाशी मे न जाने कैसे -कैसे मुज़मर के साथ है डोलती
मुश्ताक है सारी बातों को जानने के लिए
हर नाश-औ-नुमा बात के शर-हे को जिबस है तोलती
महवे रहती है दवाम मोअजे-ज़ार की कुल्फत मे
ऐ-'यासिर' खामोश होकर भी ये तेरी आँखें है बोलती
-श़ायर ज़नाब 'यासिर'
प्रस्तुतिः सिकंदर ख़ान
प्रस्तुतिः सिकंदर ख़ान
खार -- कांटे, खल्वत-- तन्हाई, मिज़गा -- जूनून
शर-हे -- मतलब, जिबस -- बहुत ज्यादा, दवाम -- लीन
सुन्दर
ReplyDeleteयशोदा दीदी इसमे उर्दू शब्द है इतनी समझ मे तो नही आई पर है अच्छी
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (15-01-2017) को "कुछ तो करें हम भी" (चर्चा अंक-2580) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
मकर संक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर।
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