रफ़्ता रफ़्ता कोई आ जाएं करीब पता न चले
वो आएं फ़कीरी का आँचल ओढ़ पता न चलें
किवाड़ों से वो देखता रहा उन्हें दिन-रात यहाँ
दिल की दीवारों पे कब दस्तक दें पता न चले
इंसान घिरा रहता आशंकाओं से इंसान के प्रति
फ़क़ीरों में या इंसानों में कौन है यह पता न चले
महफ़िलों में उनका आना ही बस काफ़ी होता है
महफ़िल में कब वो सूफ़ियाना बैठें पता न चले
-श्री पंकज त्रिवेदी
अनहद कृति से
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteवाह खूब
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति।
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