Thursday, April 9, 2020

दिशा दीप्त हो उठी ...स्मृतिशेष रामधारी सिंह दिनकर

रामधारी सिंह "दिनकर" - कविता कोश
स्मृतिशेष रामधारी सिंह दिनकर
वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल, दूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है।

चिनगारी बन गई लहू की
बूँद गिरी जो पग से;
चमक रहे, पीछे मुड़ देखो,
चरण - चिह्न जगमग - से।
शुरू हुई आराध्य-भूमि यह,
क्लान्ति नहीं रे राही;
और नहीं तो पाँव लगे हैं,
क्यों पड़ने डगमग - से?
बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है।

अपनी हड्डी की मशाल से
हॄदय चीरते तम का,
सारी रात चले तुम दुख
झेलते कुलिश निर्मम का।
एक खेय है शेष किसी विधि
पार उसे कर जाओ;
वह देखो, उस पार चमकता
है मन्दिर प्रियतम का।
आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है,
थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है।
दिशा दीप्त हो उठी प्राप्तकर
पुण्य--प्रकाश तुम्हारा,
लिखा जा चुका अनल-अक्षरों
में इतिहास तुम्हारा।
जिस मिट्टी ने लहू पिया,
वह फूल खिलायेगी ही,
अम्बर पर घन बन छायेगा
ही उच्छवास तुम्हारा।
और अधिक ले जाँच, देवता इतना क्रूर नहीं है।
थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है।
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रचनाकाल: १९४३

Wednesday, April 8, 2020

देखा है किस निगाह से ...नवीन मणि त्रिपाठी

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सब लोग मुन्तज़िर है वहाँ माहताब के ।
चेहरे पढ़े गए हैं जहाँ इज़्तिराब के ।।

छुपता कहाँ है इश्क़ छुपाने के बाद भी ।
होने लगे हैं शह्र में चर्चे ज़नाब के ।।

दौलत के नाम पर वही भटके हुए मिले ।
किस्से सुना रहे थे जो मुझको सराब के ।।

बदला ज़माना है या मुकद्दर खराब है ।
मिलते नहीं हैं यार भी अपने हिसाब के ।।

साज़िश रची गयी है वहीं देश के ख़िलाफ़ ।
नारे जहाँ लगे थे कभी इंकलाब के ।।

साकी उसे पिलाने की ज़िद कर न बारहा ।
जो जी रहा है मुद्दतों से बिन शराब के ।।

नाज़ ओ नाफ़ासतों से वो मगरूर क्यूँ न हों ।
जब दाम लग रहे हैं सनम के हिज़ाब के ।।

है उनकी खुश्बुओं से मुअत्तर चमन मेरा ।
भेजे थे तुमने फूल जो मुझको ग़ुलाब के ।।

दरिया ए आग इश्क़ है छूना सँभल के तुम ।
जलते दिखे हैं हाथ यहाँ आफ़ताब के ।।

देखा है किस निगाह से हमने तुझे ऐ चाँद ।
जा पढ़ तू मेरे शेर अदब की क़िताब के ।।

-नवीन मणि त्रिपाठी

Tuesday, April 7, 2020

दायरे से वो निकलता क्यों नहीं ...ममता किरण

दायरे से वो निकलता क्यों नहीं
ज़िंदगी के साथ चलता क्यों नहीं

बोझ सी लगने लगी है ज़िंदगी
ख़्वाब एक आँखों में पलता क्यों नहीं

कब तलक भागा फिरेगा ख़ुद से वो
साथ आख़िर अपने मिलता क्यों नहीं

गर बने रहना है सत्ता में अभी
गिरगिटों सा रंग बदलता क्यों नहीं

बातें ही करता मिसालों की बहुत
उन मिसालों में वो ढलता क्यों नहीं

ऐ ख़ुदा दुख हो गये जैसे पहाड़
तेरा दिल अब भी पिघलता क्यों नहीं

ओढ़ कर बैठा है क्यूँ खामोशियाँ
बन के लौ फिर से वो जलता क्यों नहीं

क्या हुई है कोई अनहोनी कहीं
दीप मेरे घर का जलता क्यों नहीं.
-ममता किरण

Monday, April 6, 2020

दरवाज़े की आंखें ...आरती चौबे मुदगल

दीवारों के कान होते हैं
एक पुरानी कहावत है
किंतु अब दरवाज़े देखने भी लगे हैं
उनके पास आंखें जो हो गई हैं

चलन बदल गया है
पहले नहीं लगी होती थी कुंडी
सिर्फ़ उढ़के होते थे दरवाज़े
कोई भी खोल के
घर के अंदर प्रवेश कर सकता था

फिर धीरे से कुंडी बंद होने लगी
खड़काने पर ही दरवाज़े खुलते

चीज़ें बदलीं
डोर बेल का ज़माना आया
साथ ही डोर 'आई '
और सी सी टी वी भी

बेल बजते ही
पूरा घर चौकन्ना हो जाता है
दरवाज़े की आंखें
और दीवारों के कान
आपस में तय करने लगते हैं
किसे अंदर आना है
किसे नहीं...

-आरती चौबे मुदगल

Sunday, April 5, 2020

सफ़ेद कुरता....नीलिमा शर्मा

अब तुम कही भी नही हो
कही भी नही
ना मेरी यादों में
न मेरी बातों में

अब मैं मसरूफ रहती हूँ
दाल के कंकड़ चुन'ने में
शर्ट के दाग धोने में
क्यारी में टमाटर बोने में

एक पल भी मेरा
कभी खाली नही होता
जो तुझे याद करूँ
या तुझे महसूस करू

मैंने छोड़ दिए
नावेल पढने
मैंने छोड़ दिए है
किस्से गढ़ने

अब मुझे याद रहता हैं बस
सुबह का अलार्म लगाना
मुंह अँधेरे उठ चाय बनाना
और सबके सो जाने पर
उनको चादर ओढ़ाना

आज तुमको यह कहने की
क्यों जरुरत आन पढ़ी हैं
सामने आज मेरी पुरानी
अलमारी खुली पड़ी हैं

किस्से दबे हुए हैं जिस में
कहानिया बिखरी सी
और उस पर मुह चिढ़ाता
तेरा उतारा सफ़ेद कुरता भी

नही नही !!अब कही भी नही हो
न मेरी यादो में न मेरी बातो में
फिर भी अक्सर मुझको सपने में
यह कुरता क्यों दिखाई देता हैं ......
- नीलिमा शर्मा


Saturday, April 4, 2020

सरगोशियों का मलाल था .. मृदुला प्रधान

पिछले पोस्ट पर कई लोगों ने इच्छा व्यक्त की .. 
वहाँ जिस कविता का ज़िक्र हुआ था 
उसे पढ़ने की .. तो प्रस्तुत है ..

कभी मुंतज़िर चश्में
ज़िगर हमराज़ था
कभी बेखबर कभी
पुरज़ुनू ये मिजाज़ था
कभी गुफ़्तगू के हज़ूम तो 
कभी खौफ़-ए-ज़द
कभी बेज़ुबां
कभी जीत की आमद में मैं
कभी हार से मैं पस्त था...

कभी शौख-ए-फ़ितरत का नशा
कभी शाम-ए-ज़श्न  
ख़ुमार था 
कभी था हवा का ग़ुबार तो
कभी हौसलों का पहाड़ था
कभी ज़ुल्मतों के शिक़स्त में 
ख़ामोशियों का शिकार था
कभी थी ख़लिश कभी रहमतें 
कभी हमसफ़र का क़रार था..

कभी चश्म-ए-तर की 
गिरफ़्त में
सरगोशियों का मलाल था
कभी लम्हा-ए-नायाब में
मैं  भर रहा परवाज़ था
कभी  था उसूलों से घिरा
मैं रिवायतों के अजाब में
कभी था मज़ा कभी बेमज़ा 
सूद-ओ-जिया के हिसाब में..

मैं था बुलंदी पर कभी 
छूकर ज़मीं जीता रहा
कभी ये रहा,कभी वो रहा 
और जिंदगी चलती रही .……
-मृदुला प्रधान
मूल रचना

Friday, April 3, 2020

आग ...वीरेन्दर भाटिया



आग
मनुष्य का
अविष्कार नहीं, मनुष्य से
पहले से है आग
आग 
खोज भी नहीं है मनुष्य की
खुद आग खोज रही थी
कोई सुरक्षित हाथ
जिसमे कल्याणकारी रहे आग

2
आग 
छिपकर आयी चकमक में
यही आग का दर्शन था
आग को जहां
नग्न किया गया
आग वहां विकराल हो गयी

3
आग
मनुष्यता को मिला 
सबसे नायाब तोहफा था
सभी तत्वों से सबसे ज्यादा तीव्रता थी 
आग में
आग ही ने समझाए
आग को झेलने..और
आग से खेलने के  हुनर

4
आग से खेलने की पराकाष्ठा में
इसी आग से
मनुष्य ने
मनुष्यता जला डाली

-वीरेंदर भाटिया