Sunday, November 10, 2019

मुखौटे बदल के देखते हैं ...नवीन मणि त्रिपाठी


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न पूछिये कि वो कितना सँभल के देखते हैं ।
शरीफ़ लोग मुखौटे बदल के देखते हैं ।।

अज़ीब तिश्नगी है अब खुदा ही खैर करे ।
नियत से आप भी अक्सर फिसल के देखते हैं ।।

पहुँच रही है मुहब्बत की दास्ताँ उन तक ।
हर एक शेर जो मेरी ग़ज़ल के देखते हैं ।।

ज़नाब कुछ तो शरारत नज़र ये करती है ।
यूँ बेसबब ही नहीं वो मचल के देखते हैं ।।

गुलों का रंग इन्हें किस तरह मयस्सर हो ।
ये बागवान तो कलियां मसल के देखते हैं ।।

ज़मीर बेच के जिंदा मिले हैं लोग बहुत ।
तुम्हारे शह्र में जब भी टहल के देखते है ।।

न जाने क्या हुआ जो बेरुख़ी सलामत है ।
हम उनके दिल के जरा पास चल के देखते हैं ।।

ये इश्क़ क्या है बता देंगे तुझको परवाने ।
जो शम्मा के लिए हर शाम जल के देखते हैं ।।

हुआ है हक़ पे बहुत जोर का ये हंगामा ।
गरीब क्यूँ यहाँ सपने महल के देखते हैं ।।

बचाएं दिल को सियासत की साज़िशों से अब ।
ये लीडरान मुहब्बत कुचल के देखते हैं ।।

वही गए हैं बुलंदी तलक यहां यारो ।
जो अपने वक्त के सांचे में ढल के देखते हैं ।।

-नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

Saturday, November 9, 2019

अपना बना कर देखो ना ..निधि सक्सेना

ग़ैरों को अपना बनाने का हुनर है तुममें
कभी अपनो को अपना बना कर देखो ना..

ग़ैरों का मन जो घड़ी में परख लेते हो
कभी अपनो का मन टटोल कर देखो ना..

माना कि ग़ैरों संग हँसना मुस्कुराना आसां है
कभी मुश्किल काम भी करके देखो ना..

कामकाजी बातचीत ज़रूरी है ज़माने से
कभी अपनो संग ग़ैरज़रूरी गुफ़्तगू भी कर देखो ना ..

इतने मुश्किल नहीं जो अपने हैं
कभी मुस्कुरा कर हाथ बढ़ा कर देखो ना..
चित्र कविताकोश से
-निधि सक्सेना
फेसबुक से

Friday, November 8, 2019

स्पीड ब्रेकर ....श्वेता सिन्हा

सृष्टि से उत्पन्न
ब्रह्मांड के चर-अचर
समस्त जीव-निर्जीव
ग्रह-गोचर,नक्षत्र,उल्का,पिंड
जीवन,प्रकृति का सूक्ष्म से सूक्ष्म कण,
सभी अपनी निर्धारित
सीमाओं से बँधे
अपनी निश्चित परिधियों में 
घूमते
तट से वचनबद्ध
निरंतर अपने
कर्मपथ पर,
अपनी तय उम्र जीने को
विवश हैं
क्योंकि निर्धारित अनुशासन है
स्पीड ब्रेकर की तरह,
सीमाओं का उल्लंघन,
असमाऩ्य गतिशीलता,
असंतुलित बहाव
 और
धुरी से विलगता का परिणाम
भुगतना पड़ता है।
स्पीड ब्रेकर को अनदेखी
किये जाने की
लापरवाही से उपजी 
विनाशकारी
और जानलेवा हादसों की तरह।
-श्वेता सिन्हा

Thursday, November 7, 2019

तुम्हारी आँखें ...श्वेता सिन्हा

ठाठें मारता 
ज्वार से लबरेज़
नमकीन नहीं मीठा समुंदर
तुम्हारी आँखें

तुम्हारे चेहरे की
मासूम परछाई
मुझमें धड़कती है प्रतिक्षण
टपकती है सूखे मन पर
बूँद-बूँद समाती
एकटुक निहारती
तुम्हारी आँखें

नींद में भी चौंकाती
रह-रह कर परिक्रमा करती
मन के खोह,अबूझ कंदराओं,
चोर तहखानों का
स्वप्न के गलियारे में 
थामकर उंगली
अठखेलियाँ करती
देह पर उकेरती 
बारीक कलाकृत्तियाँ
तुम्हारी आँखें

बर्फ की छुअन-सी
तन को सिहराती
कभी धूप कभी चाँदनी
कभी बादल के नाव पर उतारती
दिन के उगने से रात के ढलने तक
दिशाओं के हर कोने से
एकटुक ताकती
मोरपंखी बन सहलाती
तुम्हारी आँखें....
-श्वेता सिन्हा


Wednesday, November 6, 2019

गीत प्यारे खो गए...रमेशराज तेवरीकार

प्यार के, इकरार के अंदाज सारे खो गए
वो इशारे, रंग सारे, गीत प्यारे खो गए।

ज़िन्दगी से, हर खुशी से, रोशनी से, दूर हम
इस सफर में, अब भँवर में, सब किनारे खो गए।

आप आए, मुस्कराए, खिलखिलाए, क्यों नहीं?
नित मिलन के, अब नयन के चाँद-तारे खो गए।

ज़िन्दगी-भर एक जलधर-सी इधर रहती खुशी
पर ग़मों में, इन तमों में सुख हमारे खो गए।

फूल खिलता, दिन निकलता, दर्द ढलता अब नहीं
हसरतों से, अब ख़तों से सब नज़ारे खो गए।

तीर दे, कुछ पीर दे, नित घाव की तासीर दे
पाँव को जंजीर दे, मन के सहारे खो गए।
-रमेशराज तेवरीकार

Tuesday, November 5, 2019

यादें जाती नहीं ...कुँवर रवीन्द्र

पूरी रात जागता रहा
सपने सजाता,
तुम आती थीं, जाती थीं
फिर आतीं फिर जातीं ,
परन्तु
यादें करवट लिए सो रही थीं

सुबह,
यादों ने ही मुझे झझकोरा
और जगाया,
जब मै जागा
यादें दूर खड़ी हो
घूर-घूर कर मुझे देखती
और मुस्कुरा रहीं थीं

मैंने कहा
चलो हटो ,
आज नई सुबह है
मै नई यादों के साथ रहूँगा

वे नज़दीक आईं
और ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगीं

लाख जतन किए
वे गईं नहीं

यादें जाती नहीं
पूरे घर पर
कब्ज़ा कर बैठी हैं

यादें जो एक बार जुड़ जाती है
वे जाती नहीं
बस करवट लेकर
सो जाती हैं
- कुँवर रवीन्द्र
मूल रचना
कविताकोश

Monday, November 4, 2019

बस एक लम्हे का झगड़ा था ....गुलज़ार

बस एक लम्हे का झगड़ा था
दर-ओ-दीवार पे ऐसे छनाके से गिरी आवाज़
जैसे काँच गिरता है
हर एक शय में गई
उड़ती हुई, चलती हुई, किरचें
नज़र में, बात में, लहजे में,
सोच और साँस के अन्दर
लहू होना था इक रिश्ते का
सो वो हो गया उस दिन
उसी आवाज़ के टुकड़े उठा के फर्श से उस शब
किसी ने काट ली नब्जें
न की आवाज़ तक कुछ भी
कि कोई जाग न जाए
बस एक लम्हे का झगड़ा था
-गुलज़ार
मूल रचना
कविताकोश