Friday, September 8, 2017

जड़ें…मंजू मिश्रा


काश कि 
हम लौट सकें 
अपनी उन्ही जड़ों की ओर 
जहाँ जीवन शुरू होता था  
परम्पराओं के साथ 
और फलता फूलता था  
रिश्तों  के साथ 
**
मधुर मधुर मद्धम मद्धम  
पकता था  
अपनेपन की आंच में 
 मैं-मैं और-और की
 भूख से परे 
जिन्दा रहता था  
एक सम्पूर्णता 
और संतुष्टि के 
अहसास के साथ 
**
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Thursday, September 7, 2017

अब जाएँ कहाँ दिल के ठिकाने से निकलकर.....राजेश रेड्डी

सोचा न कभी खाने कमाने से निकलकर
हम जी न सके अपने ज़माने से निकलकर

जाना है किसी और फ़साने में किसी दिन
आये थे किसी और फ़साने से निकलकर

ढलता है लगातार पुराने में नया दिन
आता है नया दिन भी पुराने से निकलकर

दुनिया से बहुत ऊब कर बैठे थे अकेले
अब जाएँ कहाँ दिल के ठिकाने से निकलकर

किस काम की यारब तेरी अफ़सानानिग़ारी
किरदार भटकते हैं फ़साने से निकलकर

चहरों की बड़ी भीड़ में दम घुट सा गया था
साँस आई मेरी आइनाख़ाने से निकलकर

कोशिश से कहाँ हमने कोई शे’र कहा है
आये हैं गुहर ख़ुद ही ख़ज़ाने से निकलकर

- राजेश रेड्डी

हज़ज की मुज़ाहिफ़ सूरत
मफ़ऊल मफ़ाईल मुफ़ाईल फ़ालुन
22 11 22 11 22 11 22
http://aajkeeghazal.blogspot.in/2010/07/blog-post.html

Wednesday, September 6, 2017

प्रेम-समर्पण....डॉ. निधि अग्रवाल

हम स्त्रियां किसी से प्रेम नहीं करतीं......
हमें तो प्रेम है बस प्रेम के अहसास से!
हर रिश्ते में यह अहसास ही तलाशा करती हैं
जिसमें मिल जाए उसी की हो जाया करती हैं,
हमारे प्रेम का कोई रूप कोई आकार नहीं
जिस सांचे में डालो  वैसा ही ढल जाएगा,
कभी बहन कभी प्रेयसी कभी बेटी बन
ये समर्पित रहेगा और समर्पण ही चाहेगा,
ये अखबारों की तारीखों जैसा रोज बदलता नहीं
ये वो आयते हैं जो सजदे में झुकी रहती हैं,
मान लेती हैं जिसको भी अपना
समस्त जीवन दुआएं देती हैं,
बदल जाओ तुम अगर बदलना हो
भवरों सी चंचलता दिखलाओ,
स्त्री  तो  होती है जड़ों के मानिंद
अपनी मिट्टी से जुड़ी रहती हैं,
टूटती नहीं ये अपमानों से
प्यार के बोल सुन सब्र खोती हैं,
ओढ़ लेती हैं धानी चुनर मुस्कानों की
और फिर किसी कोने में छुप रो लेती हैं.

- डॉ. निधि अग्रवाल

Tuesday, September 5, 2017

प्रेत आएगा....बद्री नारायण


किताब से निकाल ले जायेगा प्रेमपत्र
गिद्ध उसे पहाड़ पर नोच-नोच खायेगा

चोर आयेगा तो प्रेमपत्र ही चुराएगा
जुआरी प्रेमपत्र ही दांव लगाएगा
ऋषि आयेंगे तो दान में मांगेंगे प्रेमपत्र

बारिश आयेगी तो प्रेमपत्र ही गलाएगी
आग आयेगी तो जलाएगी प्रेमपत्र
बंदिशें प्रेमपत्र ही लगाई जाएंगी

सांप आएगा तो डसेगा प्रेमपत्र
झींगुर आयेंगे तो चाटेंगे प्रेमपत्र
कीड़े प्रेमपत्र ही काटेंगे

प्रलय के दिनों में 
सप्तर्षि मछली और मनु
सब वेद बचायेंगे
कोई नहीं बचायेगा प्रेमपत्र

कोई रोम बचायेगा कोई मदीना
कोई चांदी बचायेगा कोई सोना

मै निपट अकेला 
कैसे बचाऊंगा तुम्हारा प्रेमपत्र
-बद्री नारायण

Monday, September 4, 2017

प्रतीक्षा...........महाकवि हरिवंश राय बच्चन

मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय तुम आते तब क्या होता?
मौन रात इस भाँति कि जैसे, को‌ई गत वीणा पर बज कर,
अभी-अभी सो‌ई खो‌ई-सी सपनों में तारों पर सिर धर
और दिशा‌ओं से प्रतिध्वनियाँ, जाग्रत सुधियों-सी आती हैं,
कान तुम्हारी तान कहीं से यदि सुन पाते, तब क्या होता?

तुमने कब दी बात रात के सूने में तुम आनेवाले,
पर ऐसे ही वक्त प्राण मन, मेरे हो उठते मतवाले,
साँसें घूम-घूम फिर-फिर से, असमंजस के क्षण गिनती हैं,
मिलने की घड़ियाँ तुम निश्चित, यदि कर जाते तब क्या होता?

उत्सुकता की अकुलाहट में, मैंने पलक पाँवड़े डाले,
अम्बर तो मशहूर कि सब दिन, रहता अपना होश सम्हाले,
तारों की महफ़िल ने अपनी आँख बिछा दी किस आशा से,
मेरे मौन कुटी को आते तुम दिख जाते तब क्या होता?

बैठ कल्पना करता हूँ, पगचाप तुम्हारी मग से आती
रग-रग में चेतनता घुलकर, आँसु के कण-सी झर जाती,
नमक डली-सा गल अपनापन, सागर में घुलमिल-सा जाता,
अपनी बाहों में भरकर प्रिय, कण्ठ लगाते तब क्या होता?

-महाकवि हरिवंश राय बच्चन

Sunday, September 3, 2017

औकात.....रचनाकार अज्ञात


एक माचिस की तिल्ली, 
एक घी का लोटा,
लकड़ियों के ढेर पे, 
कुछ घण्टे में राख.....
बस इतनी-सी है 
आदमी की औकात !!!!

एक बूढ़ा बाप शाम को मर गया , 
अपनी सारी ज़िन्दगी ,
परिवार के नाम कर गया,
कहीं रोने की सुगबुगाहट ,
तो कहीं फुसफुसाहट ....
अरे जल्दी ले जाओ 
कौन रखेगा सारी रात...
बस इतनी-सी है 
आदमी की औकात!!!!

मरने के बाद नीचे देखा , 
नज़ारे नज़र आ रहे थे,
मेरी मौत पे .....
कुछ लोग ज़बरदस्त, 
तो कुछ ज़बरदस्ती 
रो रहे थे। 

नहीं रहा.. ........चला गया...
चार दिन करेंगे बात.........
बस इतनी-सी है 
आदमी की औकात!!!!!

बेटा अच्छी तस्वीर बनवायेगा,
सामने अगरबत्ती जलायेगा ,
खुश्बुदार फूलों की माला होगी...
अखबार में अश्रुपूरित श्रद्धांजली होगी.........
बाद में उस तस्वीर पे,
जाले भी कौन करेगा साफ़...
बस इतनी-सी है 
आदमी की औकात !!!!!!

जिन्दगी भर,
मेरा- मेरा- मेरा किया....
अपने लिए कम ,
अपनों के लिए ज्यादा जिया...
कोई न देगा साथ...
जायेगा खाली हाथ....
क्या तिनका ले जाने की भी है हमारी औकात ???
ये है हमारी औकात
फिर घमंड कैसा ?
-रचनाकार अज्ञात

Saturday, September 2, 2017

वक़्त के साथ दौड़ता..वक़्त

आज मेरी सदा दीदी का जन्म दिन है..
प्रस्तुत है उन्हीं की लिखी एक कविता..

सब कुछ पा लेने के भ्रम में वह
जाने कितना कुछ 
खोता चला गया
...
टूटता रहा जब भी कुछ
वह उसे जोड़ने के क्रम में
कभी वादे करता
कभी मिन्नतें करता
कभी बांधकर गांठ
किसी न किसी तरह से
अपना काम चला ही लेता
...
होता मन जब भी प्रेम में
फूलों को तोड़ता
तुमसे स्नेह का रिश्ता जोड़ता
...
क्रोध की अग्नि में जब वह
अपना धैर्य खो देता
मैं की सर्वज्ञता में
रिश्तों को तोड़ता
....
वक़्त के साथ दौड़ता
इसको उसको सबको
पीछे छोड़ता
खुद का खुद से नाता तोड़ता !!
-सीमा 'सदा' सिंघल