Monday, April 25, 2016

इंतज़ार करती माँ.....ब्रजेश कानूनगो










अमरूदों  से लद गए हैं पेड़
आंवलों की होने लगी है बरसात
गूदे से भर गईं हैं सहजन की फलियाँ
बीते कसैले समय की तरह
मैथी दाने की कड़वाहट को गुड़ में घोलकर  
तैयार हो गए हैं पौष्टिक लड्डू

होड़ में दौड़ते पैकेटों के समय में 
शुक्रवारिया हाट से चुनकर लाई गयी है बेहतर मक्का
सामने बैठकर करवाई है ठीक से पिसाई
लहसुन के साथ लाल मिर्च कूटते हुए
थोड़ी सी उड़ गयी है चरपरी धूल आँखों में
बड़ गई है मोतियाबिंद की चुभन कुछ और ज्यादा 

भुरता तो बनना ही है मक्का की रोटी के साथ
तासीर ही कुछ ऐसी है बैंगन की
कि खाने के बाद उदर में 
अग्निदेव और वातरानी करने लगते हैं उत्पात
छाछ ही है जो करती है बीच बचाव
कोई ख़ास समस्या नहीं है यह
घी बनने के बाद सेठजी के यहाँ
रोज ही होता है ताजी छाछ का वितरण

पूरी तैयारी रहती है माँ की गाँव में  
मैं ही नहीं पहुँच पाता हूँ हर बार
जानता हूँ बह जाता होगा बहुत सारा नमक प्रतीक्षा करते
ऊसर जाती होगी घर की धरती   
आबोहवा में बढ़ जाती होगी थोड़ी सी आद्रता  

सच तो यह है कि खूब जानती है माँ मेरी विवशता
खुद ही चली आती है कविता में हर रोज
सब कुछ समेटे अपनी पोटली में.

















-ब्रजेश कानूनगो 

Friday, April 22, 2016

बड़े बावरे हिन्दी के मुहावरे......भावेश सोनी


         
 
हिंदी के मुहावरे, बड़े ही बावरे है,
खाने पीने की चीजों से भरे है....

कहीं पर फल है तो कहीं आटा दालें है ,
कहीं पर मिठाई है, कहीं पर मसाले है ,

फलों की ही बात ले लो....
आम के आम और गुठलियों के भी दाम मिलते हैं,

कभी अंगूर खट्टे हैं,
कभी खरबूजे, खरबूजे को देख कर रंग बदलते हैं,

कहीं दाल में काला है,
तो कहीं किसी की दाल ही नहीं गलती,

कोई डेड़ चावल की खिचड़ी पकाता है,
तो कोई लोहे के चने चबाता है,

कोई घर बैठा रोटियां तोड़ता है,
कोई दाल भात में मूसरचंद बन जाता है, 

मुफलिसी में जब आटा गीला होता है ,
तो आटे दाल का भाव मालूम पड़ जाता है,

सफलता के लिए बेलने पड़ते है कई पापड़,
आटे में नमक तो जाता है चल, 

पर गेंहू के साथ, घुन भी पिस जाता है,
अपना हाल तो बेहाल है, ये मुंह और मसूर की दाल है, 

गुड़ खाते हैं और गुलगुले से परहेज करते हैं,
और कभी गुड़ का गोबर कर बैठते हैं, 

कभी तिल का ताड़, कभी राई का पहाड़ बनता है,
कभी ऊँट के मुंह में जीरा है ,
कभी कोई जले पर नमक छिड़कता है,

किसी के दांत दूध के हैं ,
तो कई दूध के धुले हैं,

कोई जामुन के रंग सी चमड़ी पा के रोई है,
तो किसी की चमड़ी जैसे मैदे की लोई है,

किसी को छटी का दूध याद आ जाता है ,
दूध का जला छाछ को भी फूंक फूंक पीता है ,
और दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता है ,

शादी बूरे के लड्डू हैं , जिसने खाए वो भी पछताए,
और जिसने नहीं खाए, वो भी पछताते हैं,
पर शादी की बात सुन, मन में लड्डू फूटते है ,
और शादी के बाद, दोनों हाथों में लड्डू आते हैं,

कोई जलेबी की तरह सीधा है, कोई टेढ़ी खीर है,
किसी के मुंह में घी शक्कर है, सबकी अपनी अपनी तकदीर है...

कभी कोई चाय पानी करवाता है,
कोई मख्खन लगाता है

और जब छप्पर फाड़ कर कुछ मिलता है ,
तो सभी के मुंह में पानी आता है,
भाई साहब अब कुछ भी हो ,
घी तो खिचड़ी में ही जाता है,

जितने मुंह है, उतनी बातें हैं, 
सब अपनी अपनी बीन बजाते है,

पर नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है ,

सभी बहरे है, बावरें है
ये सब हिंदी के मुहावरें हैं ...

-भावेश सोनी

Sunday, April 17, 2016

किसने ऐसा किया इशारा था............डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफ़री


किसने ऐसा किया इशारा था
ख़त मेरा था पता तुम्हारा था

तुम ये कहते हो भूल जाऊँ मैं
तुमने मेरा चेहरा उतारा था

काम आई फिर अपनी ताकत ही
कोई किसका यहां सहारा था

हम अदालत में झूठ कह बैठे
और बाक़ी न कोई चारा था

फिर इकबार तुम तो सुन लेते
मैंनें तुमको अगर पुकारा था

इश्क़ में ये बात अहम ही नहीं
कौन जीता था कौन हारा था

उसको कहते थे लोग सब ज़ालिम
फिर भी बच्चा वो मां को प्यारा था

- डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफ़री
मधुरिमा से...

Wednesday, March 30, 2016

तन्हा-तन्हा उदास बस्तियां देखी है मैंने.........अमर मलंग


ख़ुश्क इन आंखों में सुर्खियां देखी है मैंनें
माज़ी की अपने तल्ख़ियां देखी है मैंनें।

अश्क लहू बनकर ग़मे दास्तां कह रहे
बेज़ुबां वक़्त की सख़्तियां देखी है मैंनें।

क्या चीज़ है अमीरे शहर हक़ीक़त तेरी
अहले दो आलम हस्तियां देखी है मैंनें।

रोशनी मयस्सर नहीं अब तलक अंधेरे को
तन्हा-तन्हा उदास बस्तियां देखी है मैंने।

-अमर मलंग

Monday, March 28, 2016

तुम मिरे साथ जो होते तो बहारें होतीं.........सीमा गुप्ता "दानी"


प्यार का दर्द भी काम आएगा दवा बनकर,
आप आ जाएँ अगर काश मसीहा बनकर। 

तुम मिरे साथ जो होते तो बहारें होतीं, 
चीखते फिरते न सहराओं की सदा बनकर।

मैंने हसरत से निगाहों को उठा रक्खा है, 
तुम नज़र आओ तो महताब की ज़िया बनकर।

मैं तुझे दिल में बुरा कहना अगर चाहूँ भी,
लफ़्ज़ होंठों पे चले आएँगे दुआ बनकर।

मैं किसी शाख़ पे करती हूँ नशेमन तामीर,
तुम भी गुलशन में रहो ख़ुश्बु-ओ-सबा बनकर।

मुन्तज़िर बैठी हूँ इक उम्र से तश्ना सीमा,
सहने-दिल पे वो न बरसा कभी घटा बनकर।

-सीमा गुप्ता "दानी"
seemagupta9@gmail.com

Saturday, March 26, 2016

बोलो किन यादों फिर, बग़ीचा लगाते हो.... सुशील यादव


रोने की हर बात पे कहकहा लगाते हो 
ज़ख़्मों पर जलता, क्यूँ फाहा लगाते हो 

गिर न जाए आकाश, से लौट के पत्थर 
अपने मक़सद का, निशाना लगाते हो 

हाथों हाथ बेचा करो, ईमान-धरम तुम 
सड़कों पे नुमाइश, तमाशा लगाते हो 

फूलो से रंज तुम्हें, ख़ुशबू से परहेज़ 
बोलो किन यादों फिर, बग़ीचा लगाते हो 

छन के आती रौशनी, बस उन झरोखों से 
संयम सुशील मन, से शीशा लगाते हो

- सुशील यादव

sushil.yadav151@gmail.com

Thursday, March 24, 2016

रंगों के आलेख.....मनोज खरे





उमर हिरनिया हो गई, देह-इन्द्र-दरबार
मौसम संग मोहित हुए, दर्पण-फूल-बहार

दर्पण बोला लाड़ से, सुन गोरी, दिलचोर
अंगिया न सह पाएगी, अब यौवन का जोर

यूं न लो अंगड़ाइयां, संयम हैं कमजोर
देर टूटते ना लगे, लोक-लाज की डोर

शाम सिंदूरी होंठ पर, आँखें उजली भोर
बैरन नदिया सा चढ़े, यौवन ये बरजोर

तितली झुक कर फूल पर, कहती है आदाब
सीने में दिल की जगह, रक्खा लाल गुलाब 

जब से होठों ने छुए, तेरे होंठ पलाश
उस दिन से ही हो गई, अम्बर जैसी प्यास

रहे बदलते करवटें, हम तो पूरी रात
अब के हम मिलेंगे, करनी क्या-क्या बात

प्राण-गली से गुजर रही, हंसी तेरी मनमीत
काला जादू रूप का, कौन सकेगा जीत

गढ़े कसीदे नेह के, रंगों के आलेख
पास पिया को पाओगे, आँखें बंद कर देख

~मनोज खरे
संयुक्त संचालक, जनसंपर्क विभाग, मध्य प्रदेश शासन.