स्व के अर्थ
नितान्त अकेली हूं,
पर उदास नहीं
कामों की लंबी सूची को
तह कर के
डाल दिया है
अलमारी के
सबसे ऊपरी खाने में
और चुरा लिया है
कुछ घंटों का समय
केवल अपने लिए
बैठूंगी यूं ही
पैर पे पैर चढ़ाए
गर्म चाय का मग लिए
हाथों में
ताकूंगी यूं ही
खिड़की के बाहर
देखूंगी दोपहर के
बदलते रंग
जानती हूं
नियमों में चल रही दुनिया
तो रोकेगी मुझे
कहेगी स्वार्थी हूं मैं
पर दुनिया तो
हर बात का लेबल लिए
तैयार खड़ी रहती है
उसकी हर बात पे
कान नहीं देना मुझे
उंहू... आज तो बिल्कुल नहीं
क्योंकि कभी कभी
जीवन का थोड़ा सा हिस्सा
स्व के लिए जीना
भी तो नितान्त ज़रूरी है
ये स्वार्थ
हू ब हू
परिचित करा जाता है
मुझे अपने
स्व के अर्थों से
और...
फिर जाग उठती है
इच्छा ज़िन्दगी के साथ
क़दमताल करने की
- शिल्पा शर्मा
मूल रचना
बेहद खूबसूरत भावाभिव्यक्ति
ReplyDeleteअच्छी लगी
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (07-09-2018) को "स्लेट और तख्ती" (चर्चा अंक-3087) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर।
ReplyDeleteकुछ पल अपने लिये भी चुनें ।
बहुत सुंदर
ReplyDeleteलाजवाब ...सुंदर रचना 👌👌👌
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