दे गया झरनों को फिर आवाज़ कौन पत्थरों के हाथ में ये साज़ कौन ले गईं मेरी उम्मीदें फिर वहीं दूर से बजा रहा ये साज़ कौन बर्फ़ को फिर-फिर पिघलने का नया धूप को सिखला गया अंदाज़ कौन मैं उड़ी तो दूर तक उड़ती रही हौंसलों को दे गया परवाज़ कौन आप भी गर रूठ कर यूँ चल दिए फिर उठाएगा हमारे नाज़ कौन -नीना पॉल
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (25-09-2018) को "जीवित माता-पिता को, मत देना सन्ताप" (चर्चा अंक-3105) पर भी होगी। -- चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है। जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये। -- हार्दिक शुभकामनाओं के साथ। सादर...! डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (25-09-2018) को "जीवित माता-पिता को, मत देना सन्ताप" (चर्चा अंक-3105) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर रचना 👌👌👌
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